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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
77. कंस के अनुचरों का मुञ्जाटवी में स्थित गोवृन्द को पुनः दावाग्नि से वेष्टित करना और भयभीत गोप-बालकों का श्रीकृष्ण-बलराम को पुकारना; श्रीकृष्ण का बालकों को अपने नेत्र मूँदने को कहकर स्वयं उस प्रचण्ड दावानल को पी जाना
अब तो बालकों के भय का पार नहीं। किंतु आश्चर्य है, ऐसे भीषण संकट के समय भी उनके अन्तस्तल में अपनी प्राण रक्षा की चाह न जगकर व्याकुलता उत्पन्न हुई नीलसुन्दर की रक्षा के लिये। इसी समय किसी अचिन्त्य प्रेरणा से उन्हें स्मृति हो आयी दो वर्ष पूर्व तपन-तनया के तट पर रात्रि के समय प्रज्वलित हुए दावानल की। उस समय व्रजपुर वासियों ने किस उपाय का अवलम्बन किया था- इसे किसी अलक्षित शक्ति ने उनके हृत्पट पर ज्यों का त्यों चित्रित कर दिया। साथ ही, अब तक का उनका अनुभव है, ऐसे अनेक अवसरों पर वे देख चुका है- ‘जब कभी भी हम लोगों पर संकट उपस्थित हुआ है और हमें बचाने की तीव्र इच्छा कन्नू भैया में जाग्रत हुई है, उस समय कन्हैया में अत्यधिक शक्ति का संचार हो जाता है।’ इस भावना ने भी उनके मन को भावित किया है। सबके हृतन्त्रों के तार अपने-आप जुड़-से गये सबने मन ही मन स्थिर किया ‘कन्नू’ भैया की रक्षा का उपाय तो यही है कि हम सब इससे, इसके सम्बन्ध में कुछ भी न कहकर केवल अपनी रक्षा की बात ही कहें, उसी प्रकार, जैसे उस रात्रि को व्रजपुर वासियों ने कहा था- फिर तो निश्चय ही कन्हैया में हमें बचाने की तीव्र भावना जाग्रत होगी और जहाँ उसमें यह इच्छा उत्पन्न हुई कि फिर तो तदनुरूप शक्ति का बारंबार यथेच्छ प्रकाश भी इसमें होकर ही रहेगा।’ अत एव इस प्रकार की भावना लिये सभी बालकों ने नीलसुन्दर के समक्ष एक स्वर से अपनी रक्षा की ही याचना की-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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