श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
नित्यसिद्धा विशुद्धवात्सल्यरसभावितमति नन्दरानी के हृदय में इस रहस्यज्ञान के लिये स्थान भी कहाँ है। कदाचित् वे तृणावर्त का आगमन, उसके पापमय संकल्प को जान भी लेतीं, तो भी इस गुरुभार का हेतु मेरे ही नीलमणि की इच्छा है, यह कल्पना उनके मन में होने की ही नहीं है। उनके नीलमणि अनन्त-ऐश्वर्यनिकेतन स्वयं भगवान् हैं, यह कल्पना व्रजेन्द्रगेहिनी ने न कभी की है, न करेंगी। अस्तु, अभी तो निर्धारित दृश्य का मंगलाचरण मात्र हुआ है। अभिनय का आरम्भ तो अब होगा। उसमें कुछ समय के लिये जननी का पुत्र के समीप से हट जाना आवश्यक है। इसलिये योगमाया के अंचल की छाया अब व्रजमहिषी पर भी पड़ने लगती है। एकाएक उनका मनोराज्य बदल जाता है, एक अभिनव अविवेक से चित्त आच्छन्न हो जाता है। वे अनुभव करती हैं-नहीं, भय का कोई कारण नहीं; भगवान् श्रीनारायणदेव की निर्मल इच्छा से ही, उनके किसी मंगलमय विधान से ही मेरे नीलमणि का शरीर इतना भारी बन गया है। इस तरह सोचती हुई जननी यन्त्रचालित की भाँति अन्तर्गृह की ओर चल पड़ती हैं। पुत्र को वहीं रत्नवटित वेदिका पर छोड़े जा रही हैं, पर मन में तनिक भी चिन्ता नहीं है। आह! जननी यह नहीं जानतीं कि कितना भीषण समय उपस्थित है। इतना ही नहीं, लीलाशक्ति के प्रभाव से भ्रान्त हुई जननी अनुभव कर रही हैं कि मैं तो जीवनधन नीलमणि को अपने साथ लिये आती हूँ। अनन्त-अपरिसीम-प्रभाव निकेतन नीलमणि इस समय ऐश्वर्य के आवेश से देदीप्यमान होकर वास्तव में वेदिका पर विराजित हैं, पर जननी को भान हो रहा है कि मेरा वह नीलमणि तो मेरे साथ है। वे तो सर्वथा निश्चिन्त हैं। इसलिये चिन्तारहित हुई वे गृह में प्रवेश कर जाती हैं, अन्य कार्यो में संलग्न हो जाती हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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