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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
75. गोप-बालकों के साथ बलराम-श्रीकृष्ण की विविध मनोहारिणी लीलाएँ
सचमुच वन की, इस ग्रीष्म के समय भी, कैसी निराली शोभा है!- अगणित निर्झरों के मधुर ‘झर-झर’ शब्द में झींगुरों की कर्ण कटु झंकार आच्छादित हो गयी हैं उन प्रपातों से असंख्य जल कण निरन्तर उच्छलित हो रहे हैं, उनसे सिक्त हुई सम्पूर्ण वनस्थली, वह स्निग्ध हुई समस्त तरु श्रेणी अद्भुत रूप से सुशोभित हो रही हैं सर्वत्र हरित तृणों का आस्तरण-सा आस्तृत है। सरिता, सरोवर एवं प्रपातों की लहरों पर बहती हुई वायु अत्यन्त शीतल हो रही है; कुमुद, पद्म, नीलोत्पल आदि अनेक पुष्पों के किञ्जल्क को अपने अञ्चल में भरकर वन की, व्रजपुर की परिक्रमा कर रही है; मन्द मन्थर गति से झुर-झुर कर प्रत्येक वृन्दावन वासी का स्पर्श कर रही है वह। इसीलिये किसी भी कानन वासी को ग्रीष्म कालीन सूर्य के, अग्नि के ताप की अनुभूति नहीं। सरिताओं का जल क्षीण न हुआ, ह्रद शुष्क न हुए, सरोवर की श्रीम्लान न हो सकी; अपितु सब में ही अगाध जल भरा है। उनमें अभी भी ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही हैं उन लहरों से तट निरन्तर प्लवित हो रहा हैं भूमि में, पुलिन में सर्वत्र आर्द्रता भरी है। विष के समान उग्र सूर्य की ये रश्मियाँ तनिक भी कानन के, व्रजपुर के धरातल का रस-शोषण न कर सकीं, वहाँ की हरितिमा का अपहरण न कर सकीं; सर्वत्र हरियाली ज्यों की त्यों बनी है। वहाँ की तरुराजि, लताएँ वैसी की वैसी राशि-राशि कुसुमों के भार से अभी भी नमित हैं। कण-कण में सौन्दर्य का स्रोत वैसे के वैसे प्रसरित हो रहा हैं विविध विचित्र विहंगमों का कलरव, मृगों का मनोहर संचरण, मयूरों का सुन्दर रव, भ्रमरों का मधुर गुञ्जन, कोकिल का, सारस का कूजन सभी ज्यों के त्यों बने हैं। वृन्दाकानन में निरन्तर परिव्याप्त उस अप्रतिम श्री का कहीं से, तनिक भी ह्रास न हो सका हैं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।18।4-7)
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