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अस्तु, अब नीलसुन्दर उनकी ओर ही दौड़ पड़ते हैं, जाकर उनके ग्रीवा-देश में अपनी भुजाएँ डाल देते हैं एक साथ प्रत्येक गौ, वृषभ, वत्स को ही श्रीकृष्णचन्द्र का परम दिव्य स्पर्श प्राप्त हो जाता हैं उस समय उन मूक पशुओं की दशा- ओह! कोई कैसे बताये। वे गायें अपनी सजल आँखों से श्रीकृष्णचन्द्र को मानो पी जाना चाह रही हों, अपने प्रफुल्ल नासा पुटों से उनके प्रत्येक अंग को ही सूँघ रही हों, अपनी रसज्ञा रसना के द्वारा प्रेमातिरेक वश उन्हें चाट लेना चाह रही हों; प्रेम विह्वलता के कारण मधुर अस्फुट हाम्बारव करती हुई मानो वे नीलसुन्दर का कुशल जान लेना चा रही हों- ‘मेरे जीवनाधार! कालिय के द्वारा तुम्हें कहीं चोट तो नहीं आयी!-
- धेनुभिरपि सास्त्रैरेव नयनपुटैः पीयमान इव प्रफुल्लाभिर्घोणाभिर्घ्रायमाण इव रसज्ञाभी रसज्ञाभी रभसेन लिह्यमान इव कलगद्गदेन हम्बारवेण सप्रणयमनामयं पृछयमान इव। [1]
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