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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
10. व्रज में क्रमशः छहों ऋतुओं का आगमन और श्रीकृष्ण की वर्षगाँठ
श्रीकृष्ण उन प्रतिबिम्बों की ओर ध्यान से देखने लगते हैं, मानो सोच रहे हों कि यह क्या वस्तु है। फिर धीरे-धीरे दोनों हाथ एवं जानुओं के बल उनकी ओर चल पड़ते हैं। वहाँ पहुँचकर दक्षिण हस्त की अरुण-मृदुल अंगुलियों से प्रतिबिम्ब को पकड़ने की चेष्टा करते हैं। यह देखते ही व्रज-पुरन्ध्रियों में आनन्द का प्रवाह बह जाता है।
एक दिन उसने देखा-श्रीकृष्ण एवं राम के समस्त अंग-आँगन की धूलि से सने हैं। इन धूलि-धूसरित अंगों की अद्भुत शोभा हो रही है। घुटुरूँ चलते हुए वे दोनों बड़ी देर से खेल रहे हैं। अचानक आगन्तुक गोपिकाओं को देखकर वे डर-से गये; दौड़कर दोनों जननी के पास जा पहुँचे। श्रीरोहिणी एवं व्रजरानी कर्दमलिप्तांग पुत्रों को अपने भुजपाश में बाँधकर हृदय से लगा लेती हैं; पुत्रवात्सल्य के प्रबल आवेगवश उनके स्तनों से अविरल दुग्धधारा क्षरित होने लगती है; दोनों जननियाँ अविलम्ब अपने दोनों पुत्रों के मुखों में स्तन दे देती हैं। मुख में स्तन लेते समय उनके नये निकले हुए छोटे-छोटे दो-चार दाँत चमक उठते हैं तथा जननी के स्तनामृत का स्पर्श पाने से मुखपर मन्दहास्य छा जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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