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कालिय कहने लगा- ‘नाथ! महामहेश्वर! हम जन्म से ही अत्यन्त दुष्ट हैं। पर पीड़ा हमारा जन्म सिद्ध स्वभाव है। तम का घन आवरण हम पर नित्य फैला रहता हैं विवेक से सर्वथा शून्य हम हैं, प्रभो! क्रोध हमारा चिरसंगी है। हमारी प्रतिशोध की भावना कभी शान्त होती ही नहीं। क्या करें किसी के लिये, जीव मात्र के लिये, अपने स्वभाव का परित्याग अत्यन्त कठिन जो है, नाथ! और यही कारण है कि जीव अनेक प्रकार के दुरभि निवेशों में रच-पच जाता है; बस, तुम्हीं बचा सकते हो, सर्वेश्वर!-
- वयं खला: सहोत्पत्या तामसा दीर्घमन्यव:।
- स्वभावो दुस्त्यजो नाथ लोकानां यद्सद्ग्रह:॥[1]
- हम निसर्ग तें खल अति घोरा।
- तामस अधिक, क्रोध नहिं थोरा।।
- नाथ! सुभाव दुसह सब काहू।
- तजि न सकै कोउ, भलि मति जाहू।।
- आग्रह असत करै सब कोई।
- त्यागि न सकै कोऊ किन होई।।
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