श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
68. श्रीकृष्ण का कालिय को अपने चारों ओर घुमाकर शान्त कर देना और फिर उसके फनों पर कूद कर चढ़ जाना, ललित नृत्य करने लगना; देवताओं द्वारा सुमन-वृष्टि तथा ऋषियों द्वारा स्तव पाठ, गन्धर्वों द्वारा गान एवं चारणों द्वारा वाद्य सेवा; कालिय का अन्त समय में प्रभु को पहचान लेना और उनकी शरण वरण करना
और कुछ ही क्षणों के अनन्तर गन्धर्व-चारणों की कला कुण्ठित होने लगी। नृत्य एक शास्त्र है, उसके निर्धारित नियम हैं। गति-विन्यास का कौशल तो कोई अपेक्षाकृत एक दूसरे से अधिक प्रदर्शित कर सकता है। दर्शक के हृत्तारों को झंकृत कर देने की सामर्थ्य सभी नर्त्तकों में समान हो ही नहीं सकती; किंतु प्रत्येक नर्तक ही नृत्य-परम्परा की सीमा में ही रहता है, कभी उसका अतिक्रमण नहीं करता। नृत्य विशेष में जो उसकी स्वतन्त्रता रहती है, एक नवीनता का भान जो वह अपने दर्शकों को करा देता है, वह भी नृत्य-कला की एक नियमगत वस्तु ही है; किंतु यहाँ तो व्रजेन्द्र नन्दन देखते-देखते ही सर्वथा सकल्पित गति से ही नृत्य करने लगते हैं। परम स्वतन्त्र व्रजेन्द्र नन्दन के द्वारा नृत्य की यह गति-रचना है तो अत्यन्त मनोहर, अत्यन्त मोहक; पर चारण-गन्धर्वों ने कहाँ शिक्षा पायी है, ऐसी अद्भुत कला की! कब देखा है उन सबने ऐसा प्राणोन्मादी उद्दाम नृत्य? इसीलिये अब सम्भव ही नहीं रहा कि वे श्रीकृष्णचन्द्र के कण्ठ में कण्ठ मिलाकर उनके गीत में योगदान कर सकें, वाद्य यन्त्रों को उनके ताल में बाँधे रख कर चल सकें; यहाँ तक कि वे ताल-पाठ का संकेत भी उच्चारण कर सकें, यह क्षमता भी उनमें न रही-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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