श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
किंतु इसी समय व्रजरानी का यह करुण आह्वान संज्ञा-शून्य व्रजेन्द्र के प्राणों में संजीवन मन्त्र-सा बनकर गूँज उठा, उनके नेत्र उन्मीलित हो उठे। फिर तो उन्होंने छलाँग-सी मार ह्रद के जल की ओर। पर तुरंत ही श्री अनन्त देव बलराम ने मानो द्वितीय प्रकाश स्वीकार कर लिया और बाबा भी उनकी भुजाओं में ही रुद्ध हो गये। अवश्य ही शेष स्वरूप रोहिणी नन्दन का अपरिसीम बल सचमुच यहाँ कुण्ठित-सा होने लगा, अत्यन्त कठिनता से ही वे व्रजेश को पीछे की ओर खींच सके-
गोप सुन्दरियाँ, गोप गण कोइ भी ह्रद में प्रविष्ट न हो सका; सबके आगे बलराम खड़े हैं, किसी को संकेत से, किसी के कंधे छू कर, किसी को भुजाओं में भर कर वे दूर कर देते हैं। और यह लो, अब एक अद्भुत अलौकिक तेजो मण्डल उनके मुख को आवृत कर लेते हैं और मेघ-गम्भीर स्वर से वे पुकार उठते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (आनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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