श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
इधर वे गोप बालिकाएँ, जिनका अभी-अभी नव विवाह हुआ था, विवाह के अवसर पर, अन्य किसी की दृष्टि में कुछ भी नवीनता संघटित न होने पर भी जिन अधिकांश दुलहिन बनी बालिकाओं ने ही एक अत्यन्त आश्चर्यमयी घटना के दर्शन किये थे; विवाह-संस्कार विधिवत सम्पन्न होते हुए, भाँवर फिरते समय आदि से अन्त तक जो स्पष्ट अनुभव कर चुकी थीं कि वर के उस भावी पति के अणु-अणु में नीलसुन्दर भरे हुए हैं, उनके साथ भाँवरें नीलसुन्दर ने ही दीं, सर्वथा उनका पाणिग्रहण नीलसुन्दर ने ही किया, क्षणभर के लिए भी वह वर उनकी दृष्टि में न आया, जिसके साथ सगाई की बात सुनी गयी थी और इस प्रकार अनुभव करके जो भ्रान्त-सी बन गयी थी; जिनका जीवन ही कुछ और-सा बन गया था। कभी तो वे इस घटना को स्मरण करतीं और कहीं उन्हें सर्वथा इसकी विस्मृति हो जाती, पर निरन्तर एक विचित्र-सी वेदना जिनके प्राणों में भरी रहती; नीलसुन्दर को देख कर जो विथकित रह जातीं, और आज व्याकुल गोप-गोपी समाज के साथ जो यहाँ दौड़ी आयी थीं; तथा ठीक इनकी छाया की भाँति ही श्रीकृष्णचन्द्र की समवयस्का वे गोप कुमारिकाएँ भी जिनके प्राण मानो सदा श्रीकृष्णचन्द्र में ही समाये रहते थे तथा न जाने क्यों जिनकी आँखे नवलसुन्दर को देखते ही सजल हो उठतीं। आज इस कालियह्नद पर आ पहुँची थीं; ये दोनों ही नवविवाहिता गोप सुन्दरियाँ एवं नीलसुन्दर की समवयस्का गोप कुमारिकाएँ सहसा मूर्छा से जगकर करुण चीत्कार कर उठीं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीविष्णुपु. 5।7।32)
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