श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
66. अपशकुन देखकर नन्द-यशोदा एवं बलराम जी का तथा अन्य व्रजवासियों का नन्द नन्दन के लिये चिन्तित हो एक साथ दौड़ पड़ना और श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे कालीदह पर जा पहुँचना और वहाँ का हृदय विदारक दृश्य देखकर मूर्च्छित हो गिर पड़ना
किंतु यहाँ आने पर, तट पर स्थित उस विशाल वट की छाया से आगे होते ही- ‘हाय रे! यह मार्ग तो एकमात्र कालिय ह्नद की ओर हो गया है।’ सबके प्राण एक साथ ही मानो ह्नद के उस विषम विष की स्मृति मात्र से भस्म हो उठे। इसके अनन्तर उस सघन वन की सीमा को श्रीकृष्ण के चरण चिह्नों के सहारे ही उन सबने पार को अवश्य किया और फिर इस पार आकर निर्वृक्ष स्थल पर भी अग्रसर होने लगे; किंतु अब उनके शरीर में स्पन्दन की शक्ति स्वाभाविक थी या सर्वथा किसी अचिन्त्य शक्ति के द्वारा देह के उन स्नायु जालों में प्राण का संचार हो रहा था और उससे अनुप्राणित हुए वे दौड़े जा रहे थे यह निर्णय कर लेना अत्यन्त कठिन है। कुछ भी हो, ह्नद के परिसर में तो वे आ ही पहुँचे और दूर से ही क्रमशः उनकी फटी-सी आँखों में वह कराल दृश्य भर गया- चारों ओर प्राण शून्य-से असंख्य गोप शिशु, मृतवत् अगणित तरुण गोप तथा सर्वथा ह्नद के जल के समीप प्रतिमा-सी अचल, अपलक असंख्य गायें, जिनमें जीवन का चिह्न इतना-सा ही अवशिष्ट है कि रह-रह कर वे अत्यन्त करुण स्वर में डकार उठती है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।16।19)
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