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इतनें में व्रजपुरन्ध्रियाँ दौड़ती हुई आयीं। गोप भी आ पहुँचे। कारण स्पष्ट था; अत्यन्त भयंकर अशुभ सूचक चिह्न समस्त व्रजपुर वासियों को ही स्पष्ट दीख जो रहे हैं- ‘ग्रीष्म काल के मध्याह्न में सूर्य की ओर मुँह उठाकर उपवन के समीप श्रृगाल अशुभ की सूचना देते हुए बोलते ही जा रहे हैं! वायु-परिचालित धूलि-कणों से परिव्याप्त न होने पर भी दिक्-सुन्दरियाँ दिशाएँ धूएँ से धूमिल, अत्यन्त म्लान हो गयी हैं; महिष-श्रृंग के वर्ण के समान वे काली पड़ गयी हैं! स्वयं दिनमणि सूर्य भी एक निस्तेज मणि के समान प्रतीत हो रहे हैं! सुख स्पर्शी पवन भी एक झंझावात के रूप में अनुभूत होने लगा है! व्रज की धरा अभूतपूर्व रूप से बारंबार कम्पित हो रही है! पुरवनिताओं के दक्षिण नेत्र, दक्षिण अंगों से स्पन्दन हो रहा है एवं ब्रज गोपों के वामनेत्र, वामअंग स्पन्दित हो रहे हैं!-
- यथा दिनकरमुखाभिमुखमुखरताखरतारध्वनिध्वनिताशिवाभिः शिवाभिः। निर्धूलीधूलीढाभिंरपि धूमधूमलतया मलीमसतया संवादिगवलाभिर्दिगवलाभिः। विडम्वितनिर्महोमणिनाहोमणिना। खरतरस्पर्शनेन स्पर्शनेन। वभूवे भूवेपथुना पृथुना पृथगेव। पस्पन्दे वामनयनावामनयनादि पुंसां तु वामनयनादि।[1]
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