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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
64. श्रीकृष्ण का कालिय के श्यानागार में प्रवेश और नाग वधुओं से उसे जगाने की प्रेरणा करना; नाग पत्नियों का बाल कृष्ण के लिये भयभीत होना और उन्हें हटाने की चेष्टा करना
लीलासिन्धु व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र की अनादि-अनन्त लीलाओं में किसी एक लीला का भी- उसके किसी स्वल्पतम अंश का भी ‘अथ’-‘इति’ निर्देश कर देना, यहाँ इसका आरम्भ है, यहाँ इसकी परिसमाप्ति हुई, इस प्रकार इत्थम्भूत रूप निर्धारित कर देना आज तक किसी के लिये भी सम्भव नहीं हुआ, अनन्त काल तक किसी के लिये होगा भी नहीं। इस अपरिसीम सिन्धु में कहाँ किस समय कौन-सी ऊर्मि उठी, कहाँ कितने काल के अनन्तर वह विलीन हुई। यह आज तक किसी ने नहीं जाना। वहाँ, उनके स्वरूप भूत वृन्दाकानन में प्राकृत अवच्छेद नहीं, प्राकृत कालमान नहीं। लीला-निर्वाह के लिये वहाँ सब कुछ वस्तुएँ एवं अभिनव प्रतीयमान काल-नियन्त्रण है अवश्य; पर वे सब-के-सब सर्वदा सच्चिदानन्दमय हैं- इन्हीं शब्दों में यत्किंचित उस अप्राकृत सत्ता को हम शाखा चन्द्र न्याय से हृदयंगम कर सकें तो भले कर लें। अन्यथा सर्वथा अनिर्वचनीय, अचिन्त्य है वह। इसीलिये किसी भी लीला का ओर-छोर पा लेना सम्भव नहीं। व्रजेन्द्र नन्दन की अचिन्त्य लीला-महाशक्ति जहाँ से जिस लीला स्रोत को मोड़ देती है, अन्तर्हित कर देती है, एवं पुनः उसे उद्बुद्ध कर प्रसरित कर देती है- इसे तो हम उनकी कृपा शक्ति से अनुप्राणित होकर किसी अंश में जान सकते हैं; पर उस स्रोत का मूल एवं उसका पर्यवसान कहाँ है, कहाँ होगा- यह सदा अज्ञात ही रहता है। अभी पाँच प्रहर पूर्व की ही तो बात है - व्रजेन्द्र सदन में इस कालिय मन्थन-लीला की पृष्ठ भूमि के रूप में न जाने कितनी घटनाएँ घटित हो चुकी हैं। पर यह कौन जानता है कि वास्तव में इनका आरम्भ कहाँ हुआ एवं इनके अवसान बिन्दु की उपलब्धि कहाँ होगी। जिसे हम इनके मूल रूपों में अनुभव करते हैं, जिसका हमें प्रसरित होते रहने का भान होता है और जिसे हम समापक बिन्दु निर्धारित करते हैं, वे तो सचमुच लीला शक्ति के नियन्त्रण में अत्यन्त सुदूर- नहीं-नहीं अनादि अनन्त प्रवाह के बिन्दु हैं- जहाँ व्रजराज नन्दन का आनन्दवर्द्धन करने के लिये, विश्व को उनके स्वरूप भूत निराविल चिन्मय आनन्द रस का दान करने के लिये लीला की धारा अपेक्षित बिन्दु के पास मुड़कर व्यक्त हो गयी है, गन्तव्य दिशा की ओर निर्धारित बिन्दु तक प्रबाहित हो रही है और फिर वहाँ से उद्देश्य-विशेष के लिये रस पोषण के लिये अन्तर्हित कर दी गयी है तथा अवसर आते ही फिर व्यक्त हो जायगी। इसे और भी स्पष्ट रूप से हम इन घटनाओं में देख लें- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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