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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
63. श्रीकृष्ण का कालिय नाग पर शासन करने के उद्देश्य से कालिय ह्नद के तट पर अवस्थित कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर वहाँ से कालिय ह्नद में कूद पड़ना
ऐसी ही है श्रीकृष्ण चरण स्पर्श की महिमा! यह स्पर्श प्राप्त हो फिर तो कहना ही क्या है; किसी के लिये केवल मात्र यह सौभाग्य व्यतीत होने के अनन्तर भी यदि किसी के लिये ऐसे परम सुदुर्लभ संयोग का विधान मात्र कर दे तो इससे अधिक जीवन की कृतार्थता और है ही क्या। व्रजेन्द्र नन्दन की अचिन्त्य-लीला महाशक्ति के कटाक्ष कोर में एक अद्भुत अनन्त लीलोपकरण सूचिका सुरक्षित रहती है। उसमें यह कदम्ब तरु भी स्थान पाये हुए है। सुदूर भविष्य में, अमुक द्वापर के अन्त में व्रजेन्द्र नन्दन अपने बाल्यावेश की मौज में इस कदम्ब पर आरोहण करेंगे और पश्चात इसी पर से ही कालियदमन की लीला संघटित करने के लिये कलिन्द नन्दिनी के उस विषमय ह्रद में कूद पड़ेंगे। यह विवरण इस तरु राज के लिये अंकित है। फिर कालिय का विष इसका कभी कुछ भी बिगाड़ कर सके, यह तो असम्भव है। भला, जिन व्रजेन्द्र नन्दन का एक नाम जिह्वाग्र पर उपस्थित होने मात्र से, कर्ण रन्घ्रों में प्रविष्ट होने भर से, उनके त्रिभुवन मनोहर रूप की एक काल्पनिक आभा भी मानस तल पर उदय होने मात्र से, परिस्थिति विवश हुए आकुल प्राणों की सर्वथ असहाय अवस्था में एक बार ‘नाथ! मैं तुम्हारा हूँ, इस प्रकार मन-ही-मन जिनके शीतल शंतम चरण सरोरुह की शरण ग्रहण कर लेने से- संक्षेप में कहने पर अचिन्त्य सौभाग्य वश, उनके नाम रूप-लीला-गुण आदि के सम्पर्क में किसी प्रकार चले आने मात्र से जब संसार-सर्प-विष की ज्वाला सदा के लिये शान्त हो जाती है, तब फिर जिसे व्रजराज नन्दन अपने श्रीचरणों में स्वयं स्पर्श करेंगे, उसका कालिय के विष की ज्वाला क्या कर सकती है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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