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अस्तु, अब अपरिच्छिन्न-स्वरूप श्रीकृष्णचन्द्र की चरण-सेवा आरम्भ हुई। गोप -बालकों ने अतिशय लाड़ से उनके चरण-सरोजों को अपने क्रोड़ में धारण कर लिया तथा अपनी कोमल अंगुलियों से स्पर्श करके मन्द-मन्द अत्यन्त सुखद भाव से दबा कर उनका श्रम हरने लगे। कुछ शिशु नव पल्लव-पुष्प-रचित आर्द्रव्यजन ले कर उनके नील सरोरुह-से विकसित मुख पर, इन्द्र नीलद्युति श्रीअंगों पर शीतल-मन्द-सुगन्ध बयार करने की सेवा में लगे। कुछ उनके पार्श्वदेश में बैठ कर बाहु यद्ध के अनन्तर की जाने वाली प्रणाली से उनके स्कन्धों का, भुजाओं का, कर पल्लवों का, कटिदेश का यथायोग्य मधुर रुचि कर सम्मर्दन करके सम्पूर्ण श्रान्ति एक क्षण में ही मिटा देने के प्रयास में संलग्न हुए। उन बालकों के शारदीय शुभ्र आकाश- जैसे निराविल मानस तल में बस, इस समय एक ही वासना है ‘कौन-सी सेवा हो, जिससे मेरा प्राण-प्यारा कन्हैया अविलम्ब विगतश्रम हो जाय।’ कौन उन्हें समझाये- ‘शिशुओ! तुम्हारे इस कन्हैया के इस सच्चिदानन्दमय शरीर में श्रान्ति, व्यथा, आमय के लिये तनिक भी कहीं त्रिकाल में भी अवकाश नहीं। प्रकृति एवं काल से परे की वस्तु है यह देह और तुम भी ऐसे ही हो, तुम्हारी देह भी ऐसी ही है।’ तथा सुन लेने पर भी, अनादि काल से नित्य ‘हतपाप्मा’- सर्वथा पाप शून्य होेने पर भी ये कहाँ हृदयंगम करने वाले हैं इस सत्य को। इनके समान निर्मल कौन है? अनादि काल से इनके मानस तल में स्वसुख वासना का कलुष पाप बीज कदापि अंकुरित होता ही नहीं। फिर भी इतने, ऐसे नित्य अमल होने पर भी अपने कन्हैया भैया के देह तत्त्व को ये ग्रहण नहीं करेंगे, नहीं कर सकते। क्यों नही कर सकते?
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