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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
61. श्रीकृष्ण का वृन्दावन-विहार
किसी अनिर्वचनीय सौभाग्य से इन स्थावर-जंगम वनवासियों को ऐसा राजा मिला है, जो सर्वथा उनके जीवन में अपना जीवन मिला कर शासन कर सके। इसीलिये ऐसे स्नेहमय सम्राट को सामने देख कर, उन-उन की भाषा में ही उन्हें बोलते देख कर विहग कुल के हर्ष का पार नहीं, हर्षातिरेक वश ही वे सब इस समय शान्त स्थिर हो गये हैं। न जाने कितनी देर इस सघन वन में विहंगों की यह प्रेमजन्य नीरवता तथा चञ्चल श्रीकृष्णचन्द्र की यह अनुकरण-क्रीड़ा बनी रहे यदि अचिन्त्य लीला महाशक्ति सदा सचेष्ट न रहें, लीला का नवीन क्रम उपस्थित न कर दें। वे तो करेंगी ही- वह देखो, वन के सघनतम अन्तर्भाग से हिंस्र पशु व्याघ्र-सिंह भी बाहर उन्मुक्त वनस्थली में पगडंडियों पर चले आये। नीलसुन्दर के प्रति कितना स्नेह भरा है उनकी आँखों में, यह देखते ही बनता है। किंतु नीलसुन्दर- बलिहारी है लीला विहारी की इस लीला की! वे तो भगे, ‘अरे दादा रे दादा! सिंह आया रे भैया जी! भगो, भगो!’ - इस प्रकार अत्यन्त भयभीत-से बन कर चीत्कार कर भागे जा रहे हैं। अवश्य ही उन शिशुओं को कोई भय नहीं। वे सब तो ताली पीट-पीट कर हँस रहे हैं, हँस-हँस कर आनन्द भरी दृष्टि से इन हिस्र पशुओं की ओर निहार कर, उनके और भी समीप जा कर श्रीकृष्णचन्द्र को पुकार रहे हैं- ‘अरे कन्नू! नेक इधर आ!’ तथा उनके कन्नू को भी तो लौटना ही है। यह तो भय का एक अभिनव था। किसे पता नहीं है- वृन्दावन के हिंस्र पशुओं में अहिंसा की नित्य प्रतिष्ठा है, निसर्ग से ही परस्पर वैर सम्पन्न जन्तुओं में भी वहाँ श्रीकृष्ण चरण सरोरुह के प्रभाव से सदा स्नेह की सरिता उमड़ती रहती है। पर श्रीकृष्णचन्द्र को तो खेलना है। उन्होंने सोचा था - ‘सब सखा तो हँसेंगे ही; हाँ, एक-दो भी कहीं अचानक मेरे चीत्कार से चञ्चल हो कर मेरे साथ भाग चलें, तब देखना है ..........।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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