श्रीकृष्ण का अर्जुन को बलाकव्याध और कौशिक मुनि की कथा सुनाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 69वें अध्याय में संजय ने श्रीकृष्ण का अर्जुन को समझाते हुए बलाकव्याध और कौशिक मुनि की कथा सुनाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को धर्म के विषय में बताना

श्रीकृष्ण बोले- पाण्‍डुनन्‍दन! मैं तुम्‍हें यह धर्म का रहस्‍य बता रहा हूँ। धनंजय! पितामह भीष्‍म, पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर, विदुर जी तत्‍व का उपदेश कर सकते हैं, उसी को मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। इसे ध्‍यान देकर सुनो। सत्‍य बोलना उत्तम है। सत्‍य से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है; परंतु यह समझ लो कि सत्‍पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए सत्‍य के यथार्थ स्‍वरुप का ज्ञान अत्‍यन्‍त कठिन होता है। जहाँ मिथ्‍या बोलने का परिणाम सत्‍य बोलने के समान मंगलकारक हो अथवा जहाँ सत्‍य बोलने का परिणाम असत्‍य भाषण के समान अनिष्टकारी हो, वहाँ सत्‍य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ असत्‍य बोलना ही उचित होगा। विवाह काल में, स्‍त्रीप्रसंग के समय, प्राणों पर संकट आने पर, सर्वस्‍व का अपहरण होते समय तथा ब्राह्मण की भलाई के लिये आवश्‍यकता हो तो असत्‍य बोल दे; इन पांच अवसरों पर झूठ बोलने से पाप नहीं होता। जब किसी का सर्वस्‍व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्तव्‍य है। वहाँ असत्‍य ही सत्‍य और सत्‍य ही असत्‍य हो जाता है। जो मूर्ख है, वही यथाकथंचित व्‍यवहार में लाये हुए एक जैसे सत्‍य को सर्वत्र आवश्‍यक समझता है। केवल अनुष्ठान में लाया गया असत्‍यरुप सत्‍य बोलने योग्‍य नहीं होता, अत: वैसा सत्‍य न बोले। पहले सत्‍य और असत्‍य का अच्‍छी तरह निर्णय करके जो परिणाम में सत्‍य हो उसका पालन करे। जो ऐसा करता है, वही धर्म का ज्ञाता है।[1] जिसकी बुद्धि शुद्ध (निष्‍काम) है, वह पुरुष यदि अत्‍यन्‍त कठोर होकर भी, जैसे अंधे पशु को मार देने से बलाक नामक व्याध पुण्‍य का भागी हुआ था, उसी प्रकार महान पुण्‍य प्राप्‍त कर ले तो क्‍या आश्चर्य है। इसी तरह जो धर्म की इच्‍छा तो रखता है, पर मूर्ख और अज्ञानी, वह नदियों के संगम पर बसे हुए कौशिक मुनि की भाँति यदि अज्ञानपूर्वक धर्म करके भी महान पाप का भागी हो जाय तो क्‍या आश्चर्य है।[2]

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को बलाक व्याध की कथा सुनाना

अर्जुन बोले- भगवन! बलाक नामक व्याध और नदियों के संगम पर रहने वाले कौशिक मुनि की कथा कहिये, जिससे मैं इस विषय को अच्‍छी तरह समझ सकूं।

भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा- भारत! प्राचीनकाल में बलाक नाम से प्रसिद्ध एक व्‍याध रहता था, जो अपनी स्‍त्री और पुत्रों की जीवन रक्षा के लिये ही हिंसक पशुओं को मारा करता था, कामनावश नहीं। वह बूढ़े माता-पिता तथा अन्‍य आश्रितजनों का पालन पोषण किया करता था। सदा अपने धर्म में लगा रहता, सत्‍य बोलता और किसी की निन्‍दा नहीं करता था। एक दिन वह पशुओं को मार लाने के लिये वन में गया; किंतु कहीं किसी हिंसक पशु को न पा सका। इतने ही में उसे एक पानी पीता हुआ हिंसक जानवर दिखायी दिया, जो अंधा था, नाक से सूंघकर ही आंख का काम निकाला करता था। यद्यपि वैसे जानवर को व्‍याध ने पहले कभी नहीं देखा था, तो भी उसने मार डाला। उस अंधे पशु के मारे जाते ही आकाश से व्‍याध पर फूलों की वर्षा होने लगी। साथ ही उस हिंसक पशुओं को मारने वाले व्‍याध को ले जाने के लिये स्‍वर्ग से एक सुन्‍दर विमान उतर आया, जो अप्सराओं के गीतों और वाद्यों की मधुर ध्‍वनि से मुखरित होने के कारण बड़ा मनोरम जान पड़ता था। अर्जुन! लोग कहते हैं कि उस जन्‍तु ने पूर्वजन्‍म में तप करके सम्‍पूर्ण प्राणियों का संहार कर डालने के लिये वर प्राप्‍त किया था; इसीलिये ब्रह्मा जी ने उसे अन्‍धा बना दिया था। इस प्रकार समस्‍त प्राणियों का अन्‍त कर देने के निश्चय से युक्त उस जन्‍तु को मारकर बलाक स्‍वर्गलोक में चला गया; अत: धर्म का स्‍वरुप अत्‍यन्‍त दुर्ज्ञेय है।[2]

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को कौशिक मुनि की कथा सुनाना

इसी तरह कौशिक नाम का तपस्‍वी ब्राह्मण था, जो बहुत पढ़ा-लिखा या शास्त्रज्ञ नहीं था। वह गांव के पास ही नदियों के संगम पर निवास करता था। धनंजय! उसने यह नियम ले लिया था कि मैं सदा सत्‍य ही बोलूंगा। इसलिये उन दिनों वह सत्‍यवादी के नाम से विख्‍यात हो गया था। एक दिन की बात है, कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के लिये उस वन में घुस गये; परंतु वे लुटेरे कुपित हो वहाँ भी उन लोगों का यत्‍नपूर्वक अनुसंधान करने लगे। उन्‍होंने सत्‍यवादी कौशिक मुनि के पास आकर पूछा 'भगवन! बहुत से लोग जो इधर ही आये हैं, किस रास्‍ते से गये हैं मैं सत्‍य की साक्षी से पूछता हूँ। यदि आप उन्‍हें जानते हों तो बताइये। उनके इस प्रकार पूछने पर कौशिक मुनि ने उन्‍हें सच्ची बात बता दी- इस वन में जहाँ बहुत से वृक्ष, लताएं और झाड़ियां हैं, वहीं वे गये हैं। इस प्रकार कौशिक ने उन दस्‍युओं को यथार्थ बात बता दी।[2] तब उन निर्दयी डाकुओं ने उन सबका पता पाकर उन्‍हें मार डाला, ऐसा सुना गया है। इस तरह वाणी का दुरुपयोग करने से कौशिक को महान पाप लगा, जिससे उसे नरक का कष्‍ट भोगना पड़ा; क्‍योंकि वह धर्म के सूक्ष्‍म स्‍वरुप को समझने में कुशल नहीं था।

श्रीकृष्ण द्वारा धर्मानुकूल सत्य असत्य का महत्त्व बताना

भगवान बोले- जिसे शास्त्रों का बहुत थोड़ा ज्ञान है, जो विवेकशून्‍य होने के कारण धर्मों के विभाग को ठीक-ठीक नहीं जानता, वह मनुष्‍य यदि वृद्ध पुरुषों से अपने संदेह नहीं पूछता तो अनुचित कर्म कर बैठने के कारण वह महान नरक के सदृश कष्‍ट भोगने के योग्‍य हो जाता है। धर्माधर्म के निर्णय के लिये तुम्‍हें संक्षेप से कोई संकेत बताना पड़ेगा, जो इस प्रकार होगा। कुछ लोग परम ज्ञान रुप दुष्‍कर धर्म को तर्क के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं; परंतु एक श्रेणी बहुसंख्‍यक मनुष्‍य ऐसा कहते हैं कि धर्म का ज्ञान वेदों से होता है। किंतु मैं तुम्‍हारे निकट इन दोनों मतों के ऊपर कोई दोषारोपण नहीं करता; परंतु केवल वेदों के द्वारा सभी धर्म कर्मों का विधान नहीं होता; इसलिये धर्मज्ञ महर्षियों ने समस्‍त प्राणियों के अभ्‍युदय और नि:श्रेयस के लिये उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया है।

सिद्धान्‍त यह है कि जिस कार्य में हिंसा न हो, वही धर्म है। महर्षियों ने प्राणियों की हिंसा न होने देने के लिये ही उत्तम धर्म का प्रवचन किया है। धर्म ही प्रजा को धारण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं। इसलिये जो धारण प्राण रक्षा से युक्त हो-जिसमें किसी भी जीव की हिंसा न की जाती हो, वह धर्म है। ऐसा ही धर्म-शास्त्रों का सिद्धान्‍त है। जो लोग अन्‍यायपूर्वक दूसरों के धन आदि का अपहरण कर लेना चाहते हैं, वे कभी अपने स्‍वार्थ की सिद्धि के लिये दूसरों से सत्‍यभाषण रुप धर्म का पालन कराना चाहते हो तो वहाँ उनके समक्ष मौन रहकर उनसे पिण्‍ड छुड़ाने की चेष्टा करे, किसी तरह कुछ बोले ही नहीं। किंतु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय अथवा न बोलने से लुटेरों को संदेह होने लगे तो वहाँ असत्‍य बोलना ही ठीक है। ऐसे अवसर पर उस असत्‍य को ही बिना विचारे सत्‍य समझो। जो मनुष्‍य किसी कार्य के लिये प्रतिज्ञा करके उसका प्रकारान्‍तर उपपादन करता है, वह दम्‍भी होने के कारण उसका फल नहीं पाता, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है।

प्राणसंकट काल में, विवाह में समस्‍त कुटुम्बियों के प्राणान्‍त का समय उपस्थित होने पर तथा हंसी-परिहास आरम्‍भ होने पर यदि असत्‍य बोला गया हो तो वह असत्‍य नहीं माना जाता। धर्म के तत्त्व को जानने वाले विद्वान उक्त अवसरों पर मिथ्‍य बोलने में पाप नहीं समझते। जो झूठी शपथ खाने पर लुटेरों के साथ बन्‍धन में पड़ने से छुटकारा पा सके, उसके लिये वहाँ असत्‍य बोलना ही ठीक है। उसे बिना विचारे सत्‍य समझना चाहिये। जहाँ तक वश चले, किसी तरह उन लुटेरों को धन नहीं देना चाहिये; क्‍योंकि पापियों को दिया हुआ धन दाता को भी दुख देता है। अत: धर्म के लिये झूठ बोलने पर मनुष्‍य असत्‍य भाषण के दोष का भागी नहीं होता। अर्जुन! मैं तुम्‍हारा हित चाहता हूं, इसलिये आज मैंने अपनी बुद्धि और धर्म के अनुसार संक्षेप से तुम्‍हारे लिये यह विधिपूर्वक धर्माधर्म के निर्णय का सं‍केत बताया है। यह सुनकर अब तुम्‍हीं बताओ, क्‍या अब भी राजा युधिष्ठिर तुम्‍हारे वध्‍य हैं।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 69 श्लोक 19-35
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 69 श्लोक 36-51
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 69 श्लोक 52-66

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