अश्वत्थामा का दुर्योधन से संधि के लिए प्रस्ताव

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 88वें अध्याय में अश्वत्थामा का दुर्योधन से पांडवों के साथ संधि के प्रस्ताव का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

अश्वत्थामा का दुर्योधन से पांडवों से संधि के लिए प्रस्ताव

संजय कहते हैं- राजन! देवताओं और मनुष्यों के सक्षित्व में होने वाले उस अदभुत युद्ध को देखकर समस्त प्राणी उस समय आश्चर्य चकित हो उठे; परंतु आपका पुत्र दुर्योधन और सूतपुत्र कर्ण- ये दोनों ही एक निश्चय पर पहुँच चुके थे; अतः इनके मन में न तो व्यथा हुई और न ये विस्मय को ही प्राप्त हुए। तदनन्तर द्रोणाकुमार अश्वत्थामा ने दुर्योधन का हाथ अपने हाथ से दबकार उसे सान्त्वना देते हुए कहा- दुर्योधन! अब प्रसन्न हो जाओ। पाण्डवों से संधि कर लो। विरोध से कोई लाभ नहीं है। आपस के इस झगड़े को धिक्कार है! तुम्हारे गुरुदेव अस्त्रविद्या के महान पण्डित थे। साक्षात ब्रह्मा जी के समान थे तो भी इस युद्ध में मारे गये। यही दशा भीष्म आदि महारथियों की भी हुई। मैं और मेरे मामा कृपाचार्य तो अवध्य हैं (इसलिये अब तक बचे हुए हैं) अतः अब तुम पाण्डवों के साथ मिल कर चिरकाल तक राज्यशासन करो। अर्जुन मेरे मना करने पर शांत हो जायँगे। श्रीकृष्ण भी तुम लोगों में विरोध नहीं चाहते हैं। युधिष्ठिर तो सभी प्राणियों के हित में ही लगे रहते हैं। अतः वे भी मेरी बात मान लेंगे। बाकी रहे भीमसेन और नकुल-सहदेव, सो ये भी धर्मराज के अधीन हैं; (अतः उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे) इस प्रकार पाण्डवों के साथ तुम्हारी संधि हो जाने पर सारी प्रजा का कल्याण होगा। फिर तुम्हारी इच्छा से शेष सगे-सम्बन्धी भाई-बन्धु अपने-अपने नगर को लौट जायँ और समस्त सैनिकों को युद्ध से छुट्टी मिल जाय। नरेश्वर! यदि मेरी बात नहीं सुनोगे तो निश्चय ही युद्ध में शत्रुओं के हाथ से मारे जाओगे और उस समय समय तुम्हें बड़ा पश्चात्ताप होगा।[1]

बुढ़े पिता धृतराष्ट्र और यशस्विनी माता गांधारी की ओर देखकर दयालु धर्मराज युधिष्ठिर मेरे अनुरोध करने पर भी संधि कर लेंगे। वे सामर्थ्यशाली, विद्वान, उत्तम बुद्धि से युक्त, धैर्यवान तथा सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाले हैं; अतः तुम्हारे लिये राज्य का जितना भाग उचित है, उस पर शासन करने के लिये वे तुम्हें स्वयं ही आज्ञा दे देंगे। धर्मात्मा युधिष्ठिर वैर दूर कर देंगे; क्योंकि आत्मीयजन से कोई भूल हो जाय तो उसे अक्षम्य अपराध नहीं माना जाता। श्रीकृष्ण भी यह नहीं चाहते कि आपस में कलह हो, वे स्वजनोंपर सदा संतुष्ट रहते हैं। भीमसेन, अर्जुन और दोनों भाई माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव- ये सब लोग भगवान श्रीकृष्ण तथा बुद्धिमान युधिष्ठिर की राय से चलते हैं; अतः ये पुरुषसिंह वीर उन दोनों के आदेश का गौरव रखते हुए युद्ध से निवृत हो जायँगे।[2]

अश्वत्थामा का दुर्योधन को समझाना

दुर्योधन! तुम स्वयं ही अपनी रक्षा करो। आत्मा ही सब सुखों का भाजन है। तुम जीवन-रक्षा के लिये प्रयत्न करो। जीवित रहने वाला पुरुष ही कल्याण का दर्शन करता है। तुम्हारा कल्याण हो; तुम जीवित रहोगे, तभी तुम्हें राज्य और लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है। कुरुनन्दन! मरे हुए को राज्य नहीं मिलता, फिर सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? भारत! लोक में घटित होने वाले इस प्रचलित व्यवहार की ओर दृष्टिपात करो; पाण्डवों के साथ संधि कर लो और कौरव कुल को शेष रहने दो। कुरुनन्दन! ऐसा समय कभी न आवे जबकि मैं इच्छानुसार तुमसे कोई अहितकर बात कहूँ; अतः महाबाहो! तुम मेरी बात का अनादर न करो। मेरा यह कथन धर्म के अनुकूल तथा राजा और राज कुल के लिये अत्यन्त हितकर है; यह कौरव वंश की वृद्धि के लिये परम कल्याणकारी है। गान्धारीनन्दन! मेरा यह वचन प्रजाजनों के लिये हितकर, इस कुल के लिये सुखदायक, लाभकारी तथा भविष्य में भी मंगलकारक है। नरश्रेष्ठ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि कर्ण नरव्याघ्र अर्जुन को कदापि जीत न सकेगा; अतः मेरा यह शुभ वचन तुम्हें पसंद आना चाहिये। राजेन्द्र! यदि ऐसा नहीं हुआ तो बड़ा भारी विनाश होगा। किरीटधारी अर्जुन ने अकेले जो पराक्रम किया है, इसे सारे संसार के साथ तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। ऐसा पराक्रम न तो इन्द्र कर सकते हैं और न यमराज न धाता कर सकते हैं और न भगवान यक्षराज कुबेर। यद्यपि अर्जुन अपने गुणों द्वारा इससे भी बहुत बढ़े-चढ़े हैं, तथापि मुझे विश्वास है कि वे मेरी कहीं हुई इन सारी बातों को कदापि नहीं टालेंगे। यही नहीं, वे सदा तुम्हारा अनुसरण करेंगे; इसलिये राजेन्द्र! तुम प्रसन्न होओ और संधि कर लो। तुम्हारे प्रति मेरे मन में भी सदा बड़े आदर का भाव रहा है। हम दोनों की जो घनिष्ठ मित्रता है, उसी के कारण मैं तुमसे यह प्रस्ताव करता हूँ। यदि तुम प्रेमपूर्वक राजी हो जाओगे तो मैं कर्ण को भी युद्ध से रोक दूँगा।

विद्वान पुरुष चार प्रकार के मित्र बतलाते हैं। एक सहज मित्र होते हैं (जिके साथ स्वाभाविक मैत्री होती हैं)। दूसरे हैं संधि करके बनाये हुए मित्र। तीसरे वे हैं जो धन देकर अपनाये गये हैं जो किसी के प्रबल प्रताप से प्रभावित हो स्वतः शरण में आ जाते हैं, वे चौथे प्रकार के मित्र हैं। पाण्डवों के साथ तुम्हारी सभी प्रकार की मित्रता सम्भव है। वीर! एक तो वे तुम्हारे जन्मजात भाई हैं; अतः सहज मित्र हैं। प्रभो! फिर तुम संधि करके उन्हें अपना मित्र बना लो। यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवों से मित्रता स्वीकार कर लो तो तुम्हारे द्वारा संसार का अनुपम हित हो सकता है।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 88 श्लोक 14-24
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 88 श्लोक 25-29

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