कर्ण के द्वारा नकुल की पराजय

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 24वें अध्याय में कर्ण के द्वारा नकुल की पराजय का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कर्ण द्वारा नकुल की पराजय

संजय कहते हैं- राजन! मेघों द्वारा ढक जाने पर सूर्य और चन्द्रमा दिखाई नहीं देते, उसी प्रकार बाण निर्मित भवन में प्रविष्ट हुए उन दोनों वीरों पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ती थी। तदनन्तर क्रोध में भरे हुए कर्ण ने रणभूमि में अत्यन्त भयंकर स्वरूप प्रकट करके चारों ओर से बाणों की वर्षा द्वारा पाण्डुपुत्र नकुल को ढक दिया। महाराज! सूतपुत्र के द्वारा अत्यन्त आच्छन्न कर दिये जाने पर भी बादलों से ढके हुए सूर्य के समान नकुल ने अपने मन में तनिक भी व्यथा का अनुभव नहीं किया। मान्यवर! तत्पश्चात् सूतपुत्र ने बड़े जोर से हँसकर पुनः समरांगण में बाणों के जाल बिछा दिये। उसने सैंकड़ों और हजारों बाण चलाये। उस महामनस्वी वीर के गिरते हुए उत्तम बाणों से घिर जाने के कारण वहाँ सब कुछ एक मात्र अन्धकार में निमग्न हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे बादलों की घोर घटा घिर आने पर सब ओर अँधेरा छा जाता है। महाराज! तदनन्तर हँसते हुए से कर्ण ने महामना नकुल का धनुष काटकर उनके सारथि को रथ की बैठक से मार गिराया। भारत! फिर चार तीखे बाणों से उनके चारों घोड़ों को भी तुरंत ही यमराज के घर भेज दिया। मान्यवर! इसके बाद उसने अपने बाणों द्वारा नकुल के उस दिव्य रथ को तिल-तिल करके काट दिया और पताका, चक्ररक्षकों, गदा एवं खड्ग को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही सौ चन्द्राकार चिह्नों से सुशोभित उनकी ढाल तथा अन्य सब उपकरणों को भी नष्ट कर दिया।[1] प्रजापालक नरेश! घोड़े, रथ और कवच के नष्ट हो जाने पर नकुल तुरंत उस रथ से उतर कर हाथ में परिघ लिये खड़े हो गये। राजन! उनके उठे हुए उस महाभयंकर परिघ को सूतपुत्र ने अत्यन्त तीखे तथा दुष्कर कार्य को सिद्ध करने वाले बाणों द्वारा काट डाला। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से हीन देखकर कर्ण ने झुकी हुई गाँठ वाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा और भी घायल कर दिया; परंतु उन्हें घातक पीड़ा नहीं दी। अत्यन्त बलवान तथा अस्त्रविद्या के विद्वान कर्ण के द्वारा समरांगण में आहत हो सहसा नकुल भाग चले। उस समय उनकी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। भारत! राधापुत्र कर्ण ने बारंबार हँसते हुए उनका पीछा करके उनके गले में प्रत्यन्चा सहित अपना धनुष डाल दिया।[2]

कर्ण का नकुल से कटु वचन कहना

राजन! कण्ठ में पड़े हुए उस महाधनुष से युक्त नकुल ऐसी शोभा पाने लगे, मानो आकाश में चन्द्रमा पर घेरा पड़ गया हो अथवा कोई श्याम मेघ इन्द्रधनुष से सुशोभित हो रहा हो। उस समय कर्ण ने नकुल से कहा- ‘पाण्डु कुमार! तुमने व्यर्थ ही बढ़-बढ़कर बातें बनायीं थीं। अब इस समय बारंबार मेरे बाणों की मार खाकर पुनः उसी हर्ष के साथ तुम वैसी ही बातें करो तो सही। बलवान कौरव-योद्धाओं के साथ आज से युद्ध न करना। तात! जो तुम्हारे समान हों, उन्हीं के साथ युद्ध किया करो। माद्री कुमार! लज्जित न होओ। इच्छा हो तो घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों, वहीं भाग जाओ। ‘महाराज! ऐसा कहकर उस समय कर्ण ने नकुल को छोड़ दिया।

नकुल का युधिष्ठिर के पास जाना

राजन! यद्यपि नकुल वध के योग्य अवस्था में आ पहुँचे थे, तो भी कुन्ती को दिये हुए वचन को याद करके धर्मज्ञ वीर कर्ण ने उस समय उन्हें मारा नहीं, जीवित छोड़ दिया। नरेश्वा! धनुर्धर सूतपुत्र के छोड़ देने पर पाण्डु कुमार नकुल लजाते हुए से वहाँ से युधिष्ठिर के रथ के पास चले गये। सूतपुत्र के द्वारा सताये हुए नकुल दुःख से संतप्त हो घड़े में बंद सर्प के समान दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए युधिष्ठिर के रथ पर चढ़ गये। इस प्रकार नकुल को पराजित करके कर्ण भी चन्द्रमा के समान श्वेत रंग वाले घोड़ों और ऊँची पताकाओं से युक्त रथ के द्वारा तुरंत ही पांचालों की ओर चला गया।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 24 श्लोक 22-40
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 24 श्लोक 41-60

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