नकुल और वृषसेन का युद्ध

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 84वें अध्याय में नकुल और वृषसेन के युद्ध का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

नकुल और वृषसेन का युद्ध

संजय कहते हैं- राजन! प्रमुख वीर नकुल ने अपने शत्रु कर्ण पुत्र वृषसेन को, जो समरांगण में बड़े हर्ष के साथ युद्ध कर रहा था, बाणों द्वारा पीड़ित करते हुए उस पर रोषपूर्वक चढ़ाई कर दी। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में इन्द्र ने जम्भ नामक दैत्य पर आक्रमण किया था। तदनन्तर वीर नकुल ने एक क्षुर द्वारा कर्णपुत्र के उस ध्वज को काट डाला, जिसे स्फटिकमणि से जटित विचित्र कंचुक (चोला) पहनाया गया था। साथ ही एक भल्ल द्वारा उसके सुवर्णजटित विचित्र धनुष को भी खण्डित कर दिया। तब कर्णपुत्र वृषसेन ने तुरंत ही दूसरा धनुष हाथ में लेकर पाण्डु कुमार नकुल को बींध डाला। कर्ण का पुत्र अस्त्र-विद्या का ज्ञाता था, इसलिये वह नकुल पर दिव्यास्त्रों की वर्षा करने लगा।[1] राजन! जैसे घी की आहुति पड़ने से अग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार कर्ण का पुत्र बाणों के प्रहार से अपनी प्रभा से, अस्त्रों के प्रयोंग से और रोष से जल उठा। उसने नकुल के सब घोड़ों को, जो वनायु देश में उत्पन्न, श्वेत वर्ण, तीव्रगामी और सोने की जाली से आच्छादित थे, अपने अस्त्रों द्वारा काट डाला।

नकुल का पराक्रम

तत्पश्चात् अश्वहीन रथ से उतरकर स्वर्णमय निर्मल चन्द्राकार चिह्नो से युक्त ढाल और आकाश के समान स्वच्छ तलवार ले उसे घुमाते हुए नकुल एक पक्षी के समान विचरने लगे। फिर विचित्र रीति से युद्ध करने वाले नकुल ने बड़े-बड़े़ रथियों, सवारों सहित घोड़ों और हाथियों को तुरन्त ही आकाश में तलवार घुमाकर काट डाला। वे अश्वमेघ यज्ञ में शामित्र कर्म करने वाले पुरुष के द्वारा मारे गये पशुओं के समान तलवार से कटकर-पृथ्वी पर गिर पड़े। युद्धस्थल में विजय की इच्छा रखने वाले एकमात्र वीर नकुल के द्वारा उत्तम चन्दन से चर्चित अंगो वाले, नाना देशों में उत्पन्न, युद्धकुशल, सत्यप्रतिज्ञ और अच्छी तरह पाले-पोसे गये दो हजार योद्धा काट डाले गये। अपने ऊपर आक्रमण करने वाले नकुल के पास पहुँचकर वृषसेन ने अपने सायकों द्वारा उन्हें सब ओर से बींध डाला। बाणों से पीड़ित हुए नकुल अत्यन्त कुपित हो उठे और स्वयं घायल होकर उन्होंने वीर वृषसेन को भी बींध डाला। उस महान भय के अवसर पर भाई भीम से सुरक्षित हो महामना नकुल ने वहाँ भयंकर पराक्रम प्रकट किया। अकेले ही बहुत-से पैदल मनुष्यों, घोड़ों, हाथियों और रथों का संहार करते एवं खेलते हुए-से वीर नकुल को रोष में भरे हुए कर्णपुत्र ने अठारह बाणों द्वारा घायल कर दिया। राजन! उस महासमर में कुपित हुए वृषसेन के द्वारा अत्यन्त घायल किये गये वेगवान वीर पाण्डुपुत्र नकुल कर्ण के पुत्र को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर दौडे़। जैसे बाज मांस के लोभ से पंख फैलाकर सहसा टूट पड़ता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में वेगपूर्वक आक्रमण करने वाले उदार पराक्रमी नकुल को वृषसेन ने अपने पैने बाणों से ढक दिया।[2]

वृषसेन द्वारा नकुल को पराजित करना

नकुल उसके उन बाणसमूहों को व्यर्थ करते हुए विचित्र मार्गो से विचरने लगे (युद्ध के अदभुत पैंतरे दिखाने लगे)। नरेन्द्र! तलवार के विचित्र हाथ दिखाते हुए शीघ्रतापूर्वक विचरने वाले नकुल की सहस्र तारों के चिह्नवाली ढाल को कर्ण के पुत्र ने उस महायुद्ध में अपने विशाल बाणों द्वारा नष्ट कर दिया। इसके बाद शत्रुओं का सामना करने में समर्थ वृषसेन ने अत्यन्त वेगशाली और तीखी धार वाले छः बाणों द्वारा तलवार घुमाते हुए नकुल की उस तलवार के भी शीघ्रतापूर्वक टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। वह तलवार लोहे की बनी हुई, तेज धारवाली तीखी, भारी भार सहन करने में समर्थ, म्यान से बाहर निकली हुई, भयंकर, सर्प के समान उग्र रूपधारी, अत्यन्त घोर और शत्रुओं के शरीरों का अंत कर देने वाली थी। तलवार काटने के पश्चात् उसने पुनः प्रज्जलित एवं पैने बाणोंद्वारा नकुल की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राजन! महामना नकुल रणभूमि में अन्य मनुष्यों के लिये दुष्कर तथा सज्जन पुरुषों द्वारा सेवित उत्तम कर्म करके वृषसेन के बाणों से संतप्त हो बड़ी उतावली के साथ भीमसेन के रथ पर जा चढे़। अपने घोड़ों के मारे जाने पर कर्णपुत्र के बाणों से पीड़ित हुए माद्रीकुमार नकुल अर्जुन के देखते-देखते पर्वत के शिखर पर उछलकर चढ़ने वाले सिंह के समान छलाँग मारकर भीमसेन के रथ पर आरूढ़ हो गये।[2] इससे महामनस्वी वीर वृषसेन को बड़ा क्रोध हुआ। वह एक रथ पर एकत्र हुए उन महारथी पाण्डुकुमारों को बाणों द्वारा विदीर्ण करता हुआ उन दोनों पर बाणसमूहों की वर्षा करने लगा। जब पाण्डुपुत्र नकुल का वह रथ नष्ट हो गया और बाणों द्वारा उनकी तलवार शीघ्रतापूर्वक काट दी गयी, तब दूसरे कौरव वीर भी संगठित हो निकट जाकर उन दोनों को बाणों की वर्षा से चोट पहुँचाने लगे।[3]

भीम और नकुल का अर्जुन को वृषसेन के वध के लिये उद्यत करना

तब वृषसेन पर कुपित हुए पाण्डवपुत्र भीमसेन और अर्जुन घी की आहुति पाकर प्रज्वलित हुए दो अग्नियों के समान प्रकाशित होने लगे। उन दोनों ने अपने आस-पास एकत्र हुए कौरव सैनिकों पर अत्यन्त घोर बाण वर्षा आरम्भ कर दी। तदनन्तर वायु पुत्र भीमसेन ने अर्जुन से कहा- देखो, यह नकुल वृषसेन से पीड़ित हो गया है। कर्ण का यह पुत्र हमें बहुत सता रहा है, अतः तुम इस कर्णपुत्र पर आक्रमण करो। भीमसेन के रथ के समीप आकर जब किरीटधारी अर्जुन उनकी बात सुनकर जाने लगे, तब नकुल ने भी पास आये हुए वीर अर्जुन की ओर देखकर उनसे कहा-भैया! आप इस वृषसेन को शीध्र मार डालिये। युद्ध में सामने आये हुए भाई नकुल के ऐसा कहने पर किरीटधारी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा काबू में किये हुए कपिध्वज रथ को सहसा वृषसेन की ओर तीव्र वेग से हांक दिया।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 84 श्लोक 1-21
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 84 श्लोक 22-36
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 84 श्लोक 37-42

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