देवताओं का ब्रह्मा को शिव का सारथि बनाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 34वें अध्याय में देवताओं के द्वारा निर्मित शिव के रथ के लिए ब्रह्मा को सारथि नियुक्त करने का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है[1]-

देवताओं द्वारा ब्रह्मा को शिव का सारथि बनाना

दुर्योधन बोला- जब भगवान शंकर का रथ तैयार हो गया तब देवेश्वर शिव रथ पर चढ़ना चाहते हैं, यह देखकर महर्षियों, गन्धर्वों, देवसमूहों तथा अप्सराओं ने उनकी स्तुति की। ब्रह्मर्षियों द्वारा वन्दित तथा नाचती हुई नृत्य-कुशल अप्सराओं से सुशोभित होते हुए वरदायक भगवान शिव खड्ग, बाण और धनुष ले देवताओं से हँसते हुए से बोले- ‘मेरा सारथि कौन होगा?[1] यह सुनकर देवताओं ने उनसे कहा- देवेश! आप जिसको इस कार्य में नियुक्त करेंगे, वही आपका सारथि होगा, इसमें संशय नहीं है। तब महादेव जी ने फिर कहा- ‘तुम लोग स्वयं ही सोच-विचारकर जो मुझसे भी श्रेष्ठतम हो, उसे मेरा सारथि बना दो, विलम्ब न करो। उन महात्मा के कहे हुए इस वचन को सुनकर सब देवता ब्रह्मा जी के पास गये और उन्हें प्रसन्न करके इस प्रकार बोले- ‘देव! देवशत्रुओं का दमन करने के विषय में आपने जैसा कहा था, वैसा ही हमने किया है। भगवान शंकर हम लोगों पर प्रसन्न हैं। हमने उनके लिये विचित्र आयुधों से सम्पन्न रथ तैयार कर दिया है; परंतु उस उत्तम रथ पर कौन सारथि होकर बैठेगा? यह हम नहीं जानते हैं।

अतः देवश्रेष्ठ प्रभो! आप किसी को सारथि बनाइये। देव आपने हमें जो वचन दिया है, उसे सफल कीजिये। भगवन! आपने पहले हम लोगों से कहा था कि मैं तुम लोगों का हित करूँगा। अतः उसे पूर्ण कीजिये। देव! हमारा तैयार किया हुआ वह श्रेष्ठ रथ शत्रुओं को मार भगाने वाला और दुर्लभ है। पिनाकपाणि भगवान शंकर को उस पर योद्धा बनाकर बैठा दिया गया है और वे दानवों को भयभीत करते हुए युद्ध के लिये उद्यत हैं। इसी प्रकार चारों वेद उन महात्मा के उत्तम घोड़े हैं और पर्वतों सहित पृथ्वी उनका उत्तम रथ बनी हुई है। नक्षत्र-समुदाय रूपी ध्वज से युक्त तथा आवरण में सुयशोभित भगवान शिव उस रथ पर भी योद्धा बनकर बैठे हुए हैं; परंतु कोई सारथि नहीं दिखाई देता। देव! उस रथ के लिये ऐसे सारथि का अनुसंधान करना चाहिये, जो इन सबसे बढ़कर हो; क्योंकि रथ, घोड़े और योद्धा इन सबकी प्रतिष्ठा सारथि पर ही निर्भर है। पितामह! कवच, शस्त्र और धनुष की सफलता भी सारथि पर ही निर्भर है। हम लोग आपके सिवा दूसरे किसी को वहाँ सारथि होने के योग्य नहीं देखते हैं। प्रभो! क्योंकि आप सभी देवताओं से श्रेष्ठ और सर्वगुणसम्पन्न हैं। देव! आप ही इस जगत में इन भागते हुए उपनिषद् सहित वेदरूपी अश्वों को नियन्त्रण में रख सकते हैं; अतः आप स्वयं ही सारथि हो जाइये।

बल, धैर्य, पराक्रम और विनय इन सभी गुणों द्वारा जो भी रथ से भी श्रेष्ठ हो, उसे ही युद्ध के लिये सारथि बनाना चाहिये; दूसरा कोई ऐसा नहीं हैं जो भगवान शंकर से भी बढ़कर हो। पितामह! आप अक्षय सारथिकर्म कीजिये और हमें इस संकट से उबारिये। आप ही सबसे श्रेष्ठ हैं; आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वक्ताओं में श्रेष्ठ देवेश्वर! आप सभी गुणों से श्रेष्ठ हैं; इसलिये देवद्रोहियों के वध और देवताओं की विजय के लिये तुरंत रथ पर आरूढ़ होकर इन उत्तम घोड़ों को काबू में रखिये। देव! आपके प्रसाद से देवताओं के लिये यह कण्टकरूप दैत्य मारे जायेंगे। महाबाहो! आप दैत्यों के महान भय से हमारी रक्षा करें। व्यग्रताशून्य महान व्रतधारी प्रभो! आप ही हमारे आश्रय तथा संरक्षक हैं; आप की कृपा से ही समस्त देवता स्वर्गलोक में पूजित होते हैं।' इस प्रकार देवताओं ने तीनों लोकों के ईश्वर पितामह ब्रह्मा जी के आगे मस्तक टेककर उन्हें सारथि बनने के लिये प्रसन्न किया। यह बात हमारे सुनने में आयी है।[2]

ब्रह्मा का शिव के रथ पर आरूढ़ होना

पितामह बोले- देवताओं! तुमने जो कुछ कहा है, उसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। मैं युद्ध करते समय भगवान शंकर के घोड़ों को काबू में रखुँगा। तदनन्तर लोकस्रष्टा भगवान पितामह देव ने जो जगत् के प्रपितामह हैं, उपयुक्त बात कहकर उपनी जटाओं के बोझ को बांध लिया और मृगचर्म के वस्त्र को अच्छी तरह कसकर कमण्डलु को अलग रख दिया। ततपश्चात् वे भगवान ब्रह्मा हाथ में चाबुक लेकर तत्काल उस रथ पर जा चढ़े। इस प्रकार देवताओं ने भगवान शंकर के सारथि के पद पर उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। जब उस लोकपूजित रथ पर ब्रह्मा जी चढ़ रहे थे, उस समय वायु के समान वेगशाली घोड़े धरती पर माथा टेककर बैठ गये थे। अपने तेज से प्रकाशित होते हुए भगवान ब्रह्मा ने रथारूढ़ होकर घोड़ों की बागडोर और चाबुक दोनों वस्तुएँ अपने हाथ में ले ली। तत्पश्चात् वायु के समान तीव्रगति वाले उन घोड़ों को उठाकर सुरश्रेष्ठ भगवान ब्रह्मा ने महादेव जी से कहा- ‘अब आप रथ पर आरूढ़ होईये।

तब विष्णु, चन्द्रमा और अग्नि से उत्पन्न हुए उस बाण को हाथ में लेकर महादेव जी अपने धनुष के द्वारा शत्रुओं को कम्पित करते हुए उस रथ पर चढ़ गये। रथ पर आरूढ़ हुए देवेश्वर शिव की महर्षियों, गन्धर्वों, देवसमूहों तथा अप्सराओं के समुदाय ने स्तुति की। खड्ग, धनुष और बाण लेकर शोभा पाते हुए वरदायक महादेव जी अपने तेज से तीनों लोकों को प्रकाशित करते हुए रथ पर स्थित हो गये। तब महादेव जी ने पुनः इन्द्र आदि देवताओं से कहा- 'शायद ये दैत्यों को न मारें' ऐसा समझकर तुम्हें किसी प्रकार भी शोक नहीं करना चाहिये। तुम लोग असुरों को इस बाण से ‘मरा हुआ’ ही समझो। यह सुनकर उन देवताओं ने कहा- ‘प्रभो! आपका कथन सत्य है। अवश्य ही वे दैत्य मारे गये। शक्तिशाली भगवान जो कुछ कह रहे हैं, वह वचन मिथ्या नहीं हो सकता। यह सोचकर देवताओं को बड़ा संतोष हुआ।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 41-61
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 62-74
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 75-94

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