अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 90वें अध्याय में अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

अर्जुन और कर्ण का पुन: युद्ध

संजय कहते हैं- राजन तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुन के रथ से महान शक्तिशाली और तेजस्वी बाण निकलकर कर्ण के रथ के समीप प्रकट होने लगे। महारथी कर्ण ने अपने सामने आये हुए उन सभी बाणों को व्यर्थ कर दिया। उस अस्त्र के नष्ट कर दिये जाने पर वृष्णिवंशी वीर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पार्थ! दूसरा कोई उत्तम अस्त्र छोड़ों। राधापुत्र कर्ण तुम्हारे बाणों को नष्ट करता जा रहा है। तब अर्जुन ने अत्यन्त भयंकर ब्रह्मास्त्र को अभिमंत्रित करके धनुषधर रखा। और उसके द्वारा बाणों की वर्षा करके अर्जुन ने कर्ण को आच्छादित कर दिया। इसके बाद भी वे लगातार बाणों का प्रहार करते रहे। तब कर्ण ने तेज किये हुए पैने बाणों से अर्जुन के धनुष की डोरी काट डाली। उसके क्रमशः दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठी, सातवीं और आठवीं डोरी भी काट दी। इतना ही नहीं, नवीं, दसवीं ओर ग्यारहवीं डोरी काट कर भी सौ बाणों का संधान करने वाले कर्ण को यह पता नहीं चला कि अर्जुन के धनुष में सौ डारियाँ लगी हैं। तदनन्तर दूसरी डोरी चढ़ाकर पाण्डुकुमार अर्जुन ने उसे भी आमंत्रित किया और प्रज्वलित सर्पों के समान बाणों द्वारा कर्ण को आच्छादित कर दिया। युद्धस्थल में अर्जुन के धनुष की डोरी काटना और पुनः दूसरी डोरी का चढ़ जाना इतनी शीघ्रता से होता था कि कर्ण को भी उसका पता नहीं चलता था। वह एक अद्भुत-सी घटना थी।

कर्ण अपने अस्त्रों द्वारा सव्यसाची अर्जुन के अस्त्रों का निवारण करके उन सबको नष्ट कर दिया और अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए उसने अपने आप को अर्जुन से अधिक शक्तिशाली सिद्ध कर दिखाया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्ण के अस्त्र से पीड़ित हुआ देखकर कहा- पार्थ! लगाकर अस्त्र छोड़ों। उत्तम अस्त्रों का प्रयोग करो और आगे बढ़े चलो।

अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध करना

तब शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन ने अग्नि और सर्प विष के समान भयंकर लोहमय दिव्य बाण को अभिमंत्रित करके उसमें रौद्रास्त्र का आधान किया और उसे कर्ण पर छोड़ने का विचार किया। नरेश्वर! इतने ही में पृथ्वी राधापुत्र कर्ण के पहिये को ग्रस लिया। यह देख राधापुत्र कर्ण शीघ्र ही रथ से उतर पड़ा और उद्योगपूर्वक अपनी दोनों भुजाओं से पहिये को थामकर उसे ऊपर उठाने का विचार किया। कर्ण ने उस रथ को ऊपर उठाते समय ऐसा झटका दिया कि सात द्वीपों से युक्त, पर्वत, वन और काननों सहित यह सारी पृथ्वी चक्र को निगले हुए ही चार अंगुल ऊपर उठ आयी। पहिया फँस जाने के कारण राधापुत्र कर्ण क्रोध से आँसू बहाने लगा और रोषोवेश से युक्त अर्जुन की ओर देखकर इस प्रकार बोला- महाधनुर्धर कुन्तीकुमार! दो घड़ी प्रतीक्षा करो, जिससे मैं इस फँसे हुए पहिये को पृथ्वी तल से निकाल लूँ। पार्थ! दैवयोग से मेरे इस बायें पहिये को धरती में फँसा हुआ देखकर तुम कापुरुषोचित कपटपूर्ण बर्ताव का परित्याग करो। कुन्तीकुमार! जिस मार्ग पर कायर चला करते हैं, उसी पर तुम भी न चलो; क्योंकि तुम युद्धकर्म में विशिष्ट वीर के रूप में विख्यात हो। पाण्डुनन्दन! तुम्हें तो अपने आपको और भी विशिष्ट ही सिद्ध करना चाहिये।[1]

अर्जुन! जो केश खोलकर खड़ा हो, युद्ध से मुँह मोड़ चुका हो, ब्राह्मण हो, हाथ जोड़कर शरण में आया हो, हथियार डाल चुका हो, प्राणों की भीख माँगता हों, जिसके बाण, कवच और दूसरे-दूसरे आयुध नष्ट हो गये हों, ऐसे पुरुष पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शूरवीर शस्त्रों का प्रहार नहीं करते हैं। पाण्डुनन्दन! तुम लोक में महान शूर और सदाचारी माने जाते हो। युद्ध के धर्मों को जानते हो। वेदान्त का अध्ययन रूपी यज्ञ समाप्त करके तुम उसमें अवभृथ स्नान कर चुके हो। तुम्हें दिव्यास्त्रों का ज्ञान है। तुम अमेय आत्मबल से सम्पन्न तथा युद्धस्थल में कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी हो। महाबाहो! जब तक मैं इस फँसे हुए पहिये को निकाल रहा हूँ, तब तक तुम रथारूढ़ होकर भी मुझ भूमि पर खडे़ हुए को बाणों की मार से व्याकुल न करो। पाण्डुपुत्र! मैं वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण अथवा तुमसे तनिक भी डरता नहीं हूँ। तुम क्षत्रिय के पुत्र हो, एक उच्च कुल का गौरव बढ़ाते हो; इसलिये तुमसे ऐसी बात कहता हूँ। पाण्डव! तुम दो घड़ी के लिये मुझे क्षमा करो।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 93-110
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 111-116

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