युधिष्ठिर का अश्वत्थामा को छोड़कर दूसरी ओर चले जाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 55वें अध्याय में संजय ने अश्वत्थामा द्वारा प्रताड़ित होने पर युधिष्ठिर का दूसरी ओर चले जाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का अश्वत्थामा को छोड़कर दूसरी ओर जाना

संजय कहते हैं- भारत! सात्यकि के सारथि का वध करके प्रतापी द्रोणपुत्र ने दूसरा धनुष लेकर सात्‍यकि को शरसमूहों की वर्षा द्वारा आच्‍छादित कर दिया। भरतनन्‍दन! उनके रथ का सारथि धराशायी हो चुका था, इसलिये उनके घोड़े युद्धस्‍थल में बेलगाम भागने लगे। वे विभिन्‍न स्‍थानों में भागते हुए दिखायी दे रहे थे। युधिष्ठिर आदि पाण्‍डव महारथी शस्‍त्रधारियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा पर बड़े वेग से पैने बाणों की वर्षा करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने उस महासमर में उन पाण्‍डव महारथियों को क्रोधपूर्वक आक्रमण करते देख हंसते हुए उनका सामना किया। जैसे आग वन में सूखे काठ और घास-फूंस को जला देती है, उसी प्रकार महारथी अश्वत्थामा ने समरांगण में सैकड़ों बाणरुपी ज्‍वालाओं से प्रज्‍वलित हो पांडव सेनारुपी सूखे काठ एवं घास-फूंस को जलाना आरम्‍भ किया। भरतश्रेष्ठ! जैसे तिमि नामक मत्स्य नदी के प्रवाह को विक्षुब्‍ध कर देता है, उसी प्रकार द्रोणपुत्र के द्वारा संतप्‍त की हुई पांडव सेना में हलचल मच गयी। महाराज! द्रोणपुत्र का पराक्रम देखकर सब लोगों ने यही समझा कि द्रोणकुमार अश्वत्थामा के द्वारा सारे पाण्‍डव मार डाले जायंगे। तदनन्‍तर रोष और अमर्ष में भरे हुए द्रोणशिष्‍य महारथी युधिष्ठिर ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा से कहा।

युधिष्ठिर बोले- 'द्रोणकुमार! मैं जानता हूँ कि तुम युद्ध में पराक्रमी, महाबली, अस्त्रवेत्ता, विद्वान और शीघ्रतापूर्वक पुरुषार्थ प्रकट करने वाले श्रेष्ठ वीर हो। परंतु यदि तुम अपना यह सारा बल द्रुपदपुत्र पर दिखा सको तो हम समझेंगे कि तुम बलवान तथा अस्त्र-विद्या के विद्वान हो। शत्रुसूदन धृष्टद्युम्न को समरभूमि में देखकर तुम्‍हारा बल कुछ भी काम न करेगा। (तुम्‍हारे कर्म को देखते हुए) मैं तुम्‍हें ब्राह्मण नहीं कहूंगा। पुरुषसिंह! तुम जो आज मुझे ही मार डालना चाहते हो, यह न तो तुम्‍हारा प्रेम है और न कृतज्ञता। ब्राह्मण को तप, दान और वेदाध्‍ययन करना चाहिये। धनुष झुकाना तो क्षत्रिय का काम है; तुम नाम मात्र के ब्राह्मण हो। महाबाहो! आज मैं तुम्‍हारे देखते-देखते युद्ध में कौरवों को जीतूंगा। तुम समर में पराक्रम प्रकट करो। निश्चय ही तुम एक स्‍वधर्म भ्रष्‍ट ब्राह्मण हो।' महाराज! उनके ऐसा कहने पर द्रोणपुत्र मुस्‍कराने सा लगा। इनका कथन युक्तियुक्त तथा यथार्थ है, ऐसा सोचकर उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसने कोई जवाब न देकर समरांगण में कुपित हो बाणों की वर्षा से पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे प्रलयकाल में क्रुद्ध यमराज सारी प्रजा को अदृश्‍य कर देता है। आर्य! द्रोणपुत्र के बाणों से आच्‍छादित हो कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर उस समय अपनी विशाल सेना को छोड़कर शीघ्र ही वहाँ से पलायन कर गये। राजन! तत्‍पश्चात धर्मपुत्र युधिष्ठिर के हट जाने पर फिर महामना द्रोणपुत्र अश्वत्‍थामा दूसरी ओर चला गया। नरेश्वर! फिर उस महायुद्ध में अश्वत्थामा को छोड़कर युधिष्ठिर पुन: क्रूरतापूर्ण कर्म करने के लिये आपकी सेना की ओर बढ़े।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 55 श्लोक 21-39

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महाभारत कर्ण पर्व में उल्लेखित कथाएँ


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