अर्जुन के द्वारा कर्ण का वध

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 91वें अध्याय में अर्जुन के द्वारा कर्ण के वध का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

अर्जुन और कर्ण द्वारा अपने शास्त्रों का प्रयोग करना

संजय कहते हैं- राजन! यह देख कर्ण ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके बाणों की झड़ी लगा दी और पुनः रथ को उठाने का प्रयत्न किया। तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र से ही उसके अस्त्र को दबाकर उसके ऊपर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी और उसे अच्छी तरह घायल कर दिया। तदनन्तर कुन्तीकुमार ने कर्ण को लक्ष्य करके दूसरे दिव्यास्त्र का प्रयोग किया, जो जातवेदा अग्नि का प्रिय अस्त्र था। वह आग्नेयास्त्र अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा। परंतु कर्ण ने वारुणास्त्र का प्रयोग करके उस अग्नि को बुझा दिया। साथ ही सम्पूर्ण दिशाओं में मेघों की घटा घिर आयी और सब ओर अन्धकार छा गया। पराक्रमी अर्जुन इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने राधापुत्र कर्ण के देखते-देखते वायव्यास्त्र से उन बादलों को उड़ा दिया।

तब सूतपुत्र ने पाण्डुकुमार अर्जुन का वध करने के लिये जलती हुई आग के समान एक महाभयंकर बाण हाथ में लिया। तब सूतपुत्र ने पाण्डुकुमार अर्जुन का वध करने के लिये जलती हुई आग के समान एक महाभयंकर बाण हाथ में लिया। राजन! उस उत्तम बाण को धनुष पर चढ़ाते ही पर्वत, वन और काननों सहित सारी पृथ्वी डगमगाने लगी। भारत! कंकड़ों की वर्षा करती हुई प्रचण्ड वायु चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाओं में धूल छा गयी और स्वर्ग के देवताओं में भी हाहाकार मच गया। माननीय नरेश! जब सूतपुत्र उस बाण का संधान किया, उस समय उसे देखकर समस्त पाण्डव दीनचित्त हो बड़े भारी विषाद में डूब गये। कर्ण के हाथ से छूटा हुआ वह बाण इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित हो रहा था। उसका अग्रभाग बहुत तेज था। वह अर्जुन की छाती में जा लगा और जैसे उत्तम सर्प बाँबी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह उनके वक्षःस्थल में समा गया। समरांगण में उस बाण की गहरी चोट खाकर महात्मा अर्जुन को चक्कर आ गया। गाण्डीव धनुष पर रखा हुआ उनका हाथ ढीला पड़ गया और वे शत्रुमर्दन अर्जुन भूकम्प के समय हिलते हुए श्रेष्ठ पर्वत के समान काँपने लगे।

कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्ण के वध की कहना

इसी बीच में मौका पाकर महारथी कर्ण ने धरती में घँसे हुए पहिये को निकालने का विचार किया। वह रथ से कूद पड़ा और दोनों हाथों से पकड़कर उसे ऊपर उठाने की कोशिश करने लगा; परंतु महाबलवान होने पर भी वह दैव वश अपने प्रयास में सफल न हो सका। इसी समय होश में आकर किरीटधारी महात्मा अर्जुन ने यमदण्ड के समान भयंकर आंचलिक नामक बाण हाथ में लिया। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन से कहा- पार्थ! कर्ण जब तक रथ पर नहीं चढ़ जाता, तब तक ही अपने बाण के द्वारा इस शत्रु का मस्तक काट डालो।[1]

=अर्जुन द्वारा कर्ण का ध्वज नष्ट करना

तब बहुत अच्छा कहकर अर्जुन ने भगवान की उस आज्ञा को सादर शिरोधार्य किया और उस प्रज्वलित बाण को हाथ में लेकर जिसका पहिया फँसा हुआ था, कर्ण के उस विशाल रथ पर फहराती हुई सूर्य के समान प्रकाशमान ध्वजा पर प्रहार किया। हाथी की साँकल के चिह्न से युक्त उस श्रेष्ठ ध्वजा के पृष्ठ भाग में सुवर्ण, मुक्ता, मणि और हीरे जडे़ हुए थे। अत्यन्त ज्ञानवान एवं उत्तम शिल्पियों ने मिलकर उस सुवर्णजटित सुन्दर ध्वज का निर्माण किया था। वह विश्वविख्यात ध्वजा आपकी सेना की विजय का आधार स्तम्भ होकर सदा शत्रुओं को भयभीत करती थी। उसका स्वरूप प्रशंसा के भी योग्य था। वह अपनी प्रभा से सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की समानता करती थी। किरीटधारी अर्जुन ने सोने के पंखवाले और आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान तेजस्वी उन तीखे क्षुरप्र से महारथी कर्ण के उस ध्वज को नष्ट कर दिया, जो अपनी प्रभा से निरन्तर देदीप्यमान होता रहता था। कटकर गिरते हुए उस ध्वज के साथ ही कौरवों के यश, अभिमान, समस्त प्रिय कार्य तथा हृदय का भी पतन हो गया और चारों ओर महान हाहाकार मच गया।[2]

अर्जुन द्वारा अंजलिक नामक बाण का प्रयोग करना

भारत! शीघ्रकारी कौरव वीर अर्जुन के द्वारा युद्धस्थल में उस ध्वज को काटकर गिराया हुआ देख उस समय आपके सभी सैनिकों ने सूतपुत्र की विजय की आशा त्याग दी। तदनन्तर कर्ण के वध के लिये शीघ्रता करते हुए अर्जुन ने अपने तरकस से एक अंजलिक नामक बाण निकाला, जो इन्द्र के वज्र और अग्नि के दण्ड के समान भयंकर तथा सूर्य की एक उत्तम किरण किरण के समान कान्तिमान था। वह शत्रु के मर्मस्थल को छेदने में समर्थ, रक्त और मांस से लिप्त होने वाला, अग्नि तथा सूर्य से तुल्य तेजस्वी, बहुमूल्य, मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के प्राण लेने वाला, मूठी बँधे हुए हाथ से तीन हाथ बड़ा, छः पंखों से युक्त, शीघ्रगामी, भयंकर वेगशाली, इन्द्र के वज्र के तुल्य पराकम प्रकट करने वाला, मूँह बाये हुए कालग्नि के समान अत्यन्त भयानक, भगवान शिव के पिनाक और नारायण के चक्र-सदृश भयदायक तथा प्राणियों का विनाश करने वाला था। देवताओं के समुदाय भी जिनकी गति को अनायास नहीं रोक सकते, जो सदा सबके द्वारा सम्मानित, महामनस्वी, विशाल बाण धारण करने वाले और देवताओं तथा असुरों पर भी विजय पाने में समर्थ है, उन कुन्तीकुमार अर्जुन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उस बाण को हाथ में लिया। महायुद्ध में उस बाण को हाथ में लिया और ऊपर उठाया गया देख समस्त चराचर जगत काँप उठा। ऋषि लोग जोर-जोर से पुकार उठे कि जगत का कल्याण हो! तत्पश्चात् गाण्डीवधारी अर्जुन ने उस अप्रमेय शक्तिशाली बाण को धनुष पर रखा और उसे उत्तम एवं महान दिव्यास्त्र से अभिमंत्रित करके तुरन्त ही गाण्डीव को खींचते हुए कहा-यह महान दिव्यास्त्र प्रेरित महाबाण शत्रु के शरीर, हृदय और प्राणों का विनाश करने वाला है। यदि मैंने तप किया हो, गुरुजनों को सेवा द्वारा संतुष्ट हो, यज्ञ किया हो और हितैषी मित्रों की बातें ध्यान देकर सुनी हो तो इस सत्य के प्रभाव से यह अच्छी तरह संधान किया हुआ बाण मेरे शक्तिशाली शत्रु कर्ण का नाश कर डाले, ऐसा कहकर धनंजय ने उस घोर बाण को कर्ण के वध के लिये छोड़ दिया।[2]


जैसे अथर्वांगिरस मन्त्रों द्वारा अभिचारिक प्रयोग करके उत्पन्न की हुई कृत्या उग्र, प्रज्वलित और युद्ध में मृत्यु के लिये भी असंहार होती है, उसी प्रकार वह बाण भी था। किरीटधारी अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न होकर उस बाण को लक्ष्य करके बोले- मेरा वह बाण मुझे विजय दिलाने वाला हो। इसका प्रभाव चन्द्रमा और सूर्य के समान है। मेरा छोड़ा हुआ यह घातक अस्त्र कर्ण को यमलोक पहुँचा दे। किरीटधारी अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो अपने शत्रु को मानने की इच्छा से आततायी बन गये थे। उन्होंने चन्द्रमा और सूर्य समान प्रकाशित होने वाले उस विजय दायक श्रेष्ठ बाण से अपने शत्रुओं को बींध डाला। बलवान अर्जुन के द्वारा इस प्रकार छोड़ा हुआ वह सूर्य के तुल्य तेजस्वी बाण आकाश एवं दिशाओं को प्रकाशित करने लगा। जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से वृत्रासुर का मस्तक काट लिया था, उसी प्रकार अर्जुन ने उस बाण द्वारा कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया।[3]

अर्जुन द्वारा कर्ण का वध

राजन! महान दिव्यास्त्र से अभिमंत्रित अंजलिक नामक उत्तम बाण के द्वारा इन्द्रपुत्र कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपराहृ काल में वैकर्तन कर्ण का सिर काट लिया। अंजलिक द्वारा कटा हुआ कर्ण का वह मस्तक पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके बाद उसका शरीर भी धराशायी हो गया। जैसे लाल मण्डल वाला सूर्य अस्ताचल से नीचे गिरता है, उसी प्रकार उदित सूर्य के समान तेजस्वी तथा शरत्कालीन आकाश के मध्य भाग में तपने वाले भास्कर के समान दुःसह वह मस्तक सेना के अग्रभाग में पृथ्वी पर जा गिरा। तदनन्तर सदा सुख भोगने के योग्य, उदाकर्मा कर्ण के उस अत्यन्त सुन्दर शरीर को उसके मस्तक ने बड़ी कठिनाई से छोड़ा। ठीक उसी तरह, जैसे धनवान पुरुष अपने समृद्धिशाली घर को और मन एवं इन्द्रियों को वश में रखने वाला पुरुष सत्संग को बड़े कष्ट से छोड़ पाता है। तेजस्वी कर्ण का वह ऊँचा शरीर बाणों से क्षत-विक्षत हो घावों से खून की धारा बहाता हुआ प्राणशून्य होकर गिर पड़ा, मानो वज्र के आघात से भग्न हुआ किसी पर्वत का विशाल शिखर गेरू मिश्रित जल की धारा वहा रहा हो। धरती पर गिराये गये कर्ण के शरीर से एक तेज निकलकर आकाश में फैल गया और ऊपर जाकर सूर्यमण्डल में विलीन हो गया। इस अद्भुत दृश्य को वहाँ खडे़ हुए सब लोगों ने अपनी आँखो से देखा था। कर्ण के मारे जाने पर उसे अर्जुन द्वारा गिराया हुआ देख पाण्डवों ने उच्चस्वर में शंख बजाया।

पांडवों का सिंहनाद करना

इसी प्रकार श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा हर्ष में भरे हुए नकुल, सहदेव ने भी शंख बजाये। सोमक गण कर्ण को मरकर गिरा हुआ देख अपनी सेनाओं के साथ सिंहनाद करने लगे। वे बड़े हर्ष में भरकर बाजे-बजाने और कपड़े तथा हाथ हिलाने लगे। नरेन्द्र! अत्यन्त हर्ष में भरे हुए पाण्डव योद्धा अर्जुन को बधाई देते हुए पास आकर मिले। अर्जुन बाणों से छिन्न-भिन्न एवं प्राणशून्य हुए कर्ण को रथ के नीचे पृथ्वी पर गिरा देख दूसरे बलवान सैनिक एक दूसरे को गले से लगाकर नाचते और गर्जते हुए बातें करते थे।

मस्तक कटे हुए कर्ण की अद्भुत शोभा

कर्ण का वह कटा हुआ मस्तक वायु के वेग से टूटकर गिरे हुए पर्वत खण्ड के समान, यज्ञ के अन्त में बुझी हुई अग्नि के सदृश तथा अस्ताचल पर पहुँचे हुए सूर्य के बिम्ब की भाँति सुशोभित हो रहा था।[3] सभी अंगों में बाणों व्याप्त और खून से लथपथ हुआ कर्ण का शरीर अपनी किरणों से प्रकाशित होने वाले अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पा रहा था। बाणमयी उदीप्त किरणों से शत्रु की सेना को तपाकर कर्णरूपी सूर्य बलवान अर्जुनरूपी काल से प्रेरित हो अस्ताचल को जा पहुँचा। जैसे अस्ताचल को जाता हुआ सूर्य अपनी प्रभा को लेकर चला जाता है, उसी प्रकार वह बाण कर्ण के प्राण लेकर चला गया। माननीय नरेश! दान देते समय जो दूसरे दिन के लिये वादा नहीं करता था, उस सूतपुत्र कर्ण का अंजलिक नामक बाण से कटा हुआ देहसहित मस्तक अपराहृ काल में धराशायी हो गया। उस बाण ने सारी सेना के ऊपर-ऊपर जाकर अर्जुन के शत्रुभूत कर्ण के शरीर सहित मस्तक को वेगपूर्वक अनायास ही काट डाला था।[4]

शूरवीर कर्ण को बाण से व्याप्त और खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ देख मद्रराज शल्य उस कटी हुई ध्वजा वाले रथ के द्वारा ही वहाँ से भाग खडे़ हुए। कर्ण के मारे जाने पर युद्ध में अत्यन्त घायल हुए कौरव सैनिक अर्जुन के प्रज्वलित होते हुए महान ध्वज को बारंबार देखते हुए भय से पीड़ित हो भागने लगे। सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी कर्ण का सहस्रदल कमल के समान एक सुन्दर मस्तक उसी प्रकार पृथ्वी पर गिर पड़ा, जैसे सायंकाल में सहस्र किरणों वाले सूर्य का मण्डल अस्त हो जाता है। जिसकी छाती चैड़ी और नेत्र कमल के समान सुन्दर थे तथा कांति तपाये हुए सुवर्ण के समान जान पड़ती थी, वह कर्ण अर्जुन के बाणों से संतप्त हो धरती पर पड़ा, धूल में सना मलिन हो गया था। अपने उस पुत्र की ओर बारंबार देखते हुए मन्द किरणों वाले सूर्यदेव धीरे-धीरे अपने मंदिर (अस्ताचल) की ओर जा रहे थे।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 91 श्लोक 16-33
  2. 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 91 श्लोक 34-47
  3. 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 91 श्लोक 48-60
  4. 4.0 4.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 91 श्लोक 61-69

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