दुर्योधन द्वारा शल्य को शिव के विचित्र रथ का विवरण सुनाना

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 34वें अध्याय में दुर्योधन द्वारा शल्य को देवताओं द्वारा निर्मित भगवान शिव के विचित्र रथ का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है[1]-

देवताओं द्वारा भगवान शिव के रथ का निर्माण करना

महादेव जी ने कहा- ‘देवताओं! मैं धनुष-बाण धारण करके रथ पर बैठकर युद्ध स्थल में तुम्हारे उन शत्रुओं का वध करूँगा। अतः तुम लोग मेरे लिए रथ और धनुष की खोज करो, जिसके द्वारा आज इन दैत्यों को भूतल पर मार गिराऊँ'? देवता बोले- 'देवेश्वर! हम लोग तीनों लोकों के तेज की सारी मात्राओं को एकत्र करके आपके लिए परम तेजस्वी रथ का निर्माण करेंगे। विश्वकर्मा का बुद्धि पूर्वक बनाया हुआ वह रथ बहुत ही सुन्दर होगा। तदनन्तर उन देवसंघों ने रथ का निर्माण किया और विष्णु, चन्द्रमा तथा अग्नि- इन तीनों को उनका बाण बनाया। प्रजानाथ! उस बाण का श्रृंग (गाँठ) अग्नि हुए। उसका भल्ल (फल) चन्द्रमा हुए और उस श्रेष्ठ बाण के अग्रभाग में भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हुए।[1]

बड़े-बड़े नगरों में सुशोभित पर्वत, वन और द्वीपों से युक्त प्राणियों की आधारभूता पृथ्वी देवी को उस समय देवताओं ने रथ बनाया। मन्दराचल उस रथ का धुरा था, महानदी गंगा जंघा (धुरे का आश्रय) बनीं थीं, दिशाएँ और विदिशाएँ उस रथ का आवरण थीं। नक्षत्रों का समूह ईषादण्ड हुआ और कृतयुग ने जुए का रूप धारण किया। नागराज वासुकि उस रथ का कूबर बन गये थे। हिमालय पर्वत अपस्कर (रथ के पीछे का काठ) और विन्ध्याचल ने उसके आधारकाष्ठ का रूप धारण किया। उदयाचल और अस्तांचल दोनों को उन श्रेष्ठ देवताओं ने पहियों का आधारभूत काष्ठ बनाया। दानवों के उत्तम निवास स्थान समुद्र को बन्धनरज्जु बनाया। सप्तर्षियों का समुदाय रथ का परिस्कर (चक्ररक्षा आदि का साधन) बन गया। गंगा, सरस्वती और सिंधु- इन तीनों नदियों के साथ आकाश त्रिवेणुकाष्ठयुक्त धुरे का भाग हुआ। उस रथ के बन्धन आदि की सामग्री जल तथा सम्पूर्ण नदियाँ थीं।

दिन, रात, कला, काष्ठा और छहों ऋतुएँ उस रथ का अनुकर्ष (नीचे का काष्ठ) बन गयीं। चमकते हुए ग्रह और तारे वरूथ (रथ की रक्षा के लिये आवरण) हुए। त्रिवेणु-तुल्य धर्म, अर्थ और काम-तीनों को संयुक्त करके रथ की बैठक बनाया। फल और फूलों से युक्त औषधियों एवं लताओं को घण्टा का रूप दिया। उस श्रेष्ठ रथ में सूर्य और चन्द्रमा को दोनों पहिये बनाकर सुन्दर रात्रि और दिन को वहाँ पूर्वपक्ष और अपरपथ के रूप में प्रतिष्ठित किया। धृतराष्ट्र आदि दस नागराजों का भी ईषादण्ड में ही स्थान दिया। फुफकारते हुए बड़े-बड़े सर्पों को उस रथ के जोत बनाये। द्युलोक को भी जूए में ही स्थान दिया। प्रलय काल के मेघों को युगचर्म बनाया।

कालपृष्ठ, नहुष, कर्कोटक, धनंजय तथा दूसरे-दूसरे नाग घोड़ों के केसर बाँधने की रस्सी बनाये गये। दिशाओं और विदिशाओं ने रथ में जुते हुए घोड़ों की बागडोर का भी रूप धारण किया। संध्या, धृति, मेधा, स्थिति और सनतिसहित आकाश को, जो ग्रह, नक्षत्र और तारों से विचित्र शोभा धारण करता है, चर्म (रथ का ऊपरी आवरण) बनाया। इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर- इन चार लोकपालकों को देवताओं ने उस रथ के घोड़े बनाये। सिनीवाली, अनुमति, कुहू तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली राका इनकी अधिष्ठात्री देवियों को घोड़ों के जोते का रूप दिया और इनके अधिकारी देवताओं को घोड़ों की लगामों के काँटे बनाया। धर्म, सत्य, तप और अर्थ- इनको वहाँ लगाम बनाया गया। रथ की आधारभूमि मन हुआ और सरस्वती देवी रथ के आगे बढ़ने का मार्ग थीं। नाना रंगों की विचित्र पताकाएँ पवन प्रेरित होकर फहरा रही थीं, जो बिजली और इन्द्रधनुष से बँधे हुए उस देदीप्यमान रथ की शोभा बढ़ाती थीं।

घपट्कार घोड़ों का चाबुक हुआ और गायत्री उस रथ के ऊपरी भाग की बन्धन रज्जु बनीं। पूर्वकाल में जो महात्मा महादेव जी के यज्ञ में निर्मित हुआ था, वह संवत्सर ही उनके लिए धनुष बना और सावित्री उस धनुष की महान टंकार करने वाली प्रत्यंचा बनी। महादेव जी के लिए एक दिव्य कवच तैयार किया गया, जो बहुमूल्य, रत्नभूषित, रजागुधरहित (अथवा धूल रहित स्वच्छ), अभेद्य तथा कालचक्र की पहुँच से परे था। कान्तिमान कनकमय मेरु पर्वत रथ के ध्वज का दण्ड बना था। बिजलियों से विभूषित बादल ही पताकाओं का काम दे रहे थे, जो यजुर्वेदी ऋत्विजों के बीच में स्थित हुई अग्नियों के समान प्रकाशित हो रहे थे। मान्यवर! वह रथ क्या था, सम्पूर्ण जगत के तेज का पुंज एकत्र हो गया था। उसे निर्मित हुआ देख सम्पूर्ण देवता आश्चर्यचकित हो उठे। फिर उन्होंने महात्मा महादेव जी से निवेदन किया कि रथ तैयार है।[2]

शिव का रथ पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिए उद्यत होना

पुरुषसिंह! महाराज! इस प्रकार देवताओं द्वारा शत्रुओं का मर्दन करने वाले उस श्रेष्ठ रथ का निर्माण हो जाने पर भगवान शंकर ने उसके ऊपर अपने मुख्य-मुख्य अस्त्र-शस्त्र रख दिये और ध्वजदण्ड को आकाशव्यापी बनाकर उसके ऊपर अपने वृषभ नन्दी को स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड तथा ज्वर- ये उस रथ के पार्श्वरक्षक बनकर चारों ओर शस्त्र लेकर खड़े हो गये। अथर्वा और अंगिरा महात्मा शिव के उस रथ के पहियों की रक्षा करने लगे। ऋग्वेद, सामवेद और समस्त पुराण उस रथ के आगे चलने वाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक हो गये तथा दिव्य वाणी और विद्याएँ पार्श्ववर्ती बनकर खड़ी हो गयीं। राजेन्द्र! स्तोत्र-कवच आदि, वषट्कार तथा ओंकार- ये मुख भाग में स्थित होकर अत्यन्त शोभा बढ़ाने लगे। छहों ऋतुओं से युक्त संवत्सर को विचित्र धनुष बनाकर अपनी छाया को ही महादेव जी ने उस धनुष की प्रत्यंचा बनाई, जो रणभूमि में कभी नष्ट होने वाली नहीं थी।

भगवान रुद्र ही काल हैं, अतः काल का अवयवभूत संवत्सर ही उनका धनुष हुआ। कालरात्रि भी रुद्र का ही अंश है, अतः उसी को उन्होंने अपने धनुष की अटूट प्रत्यंचा बना लिया। भगवान विष्णु, अग्नि और चन्द्रमा- ये ही बाण हुए थे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत अग्नि और सोम का ही स्वरूप है। साथ ही सारा संसार वैष्णव (विष्णुमय) भी कहा जाता है। अमित तेजस्वी भगवान शंकर के आत्मा हैं विष्णु। अतः वे दैत्य भगवान शिव के धनुष की प्रत्यंचा एवं बाण का स्पर्श न सह सके। महेश्वर ने उस बाण में अपने असह्य एवं प्रचण्ड कोप को तथा भृगु और अंगिरा के रोष से उत्पन्न हुई अत्यन्त दुःसह क्रोधाग्नि को भी स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् धूम्रवर्ण, व्याघ्र चर्मधारी, देवताओं को अभय तथा दैत्यों का भय देने वाले, सहस्रों सूर्यों के समान तेजस्वी नीललोहित भगवान शिव तेजोमयी ज्वाला से आवृत हो प्रकाशित होने लगे। जिस लक्ष्य को मार गिराना अत्यन्त कठिन है, उसको भी गिराने में समर्थ, विजयशील, ब्रह्मद्रोहियों के विनाशक भगवान शिव धर्म का आश्रय लेने वाले मनुष्यों की सदा रक्षा और पापियों का विनाश करने वाले हैं।

उनके जो अपने उपयोग में आने वाले रथ आदि गुणवान उपकरण थे, वे शत्रुओं को मथ डालने में समर्थ, भयानक बलशाली, भयंकर रूपधारी और मन के समान वेगवान थे। उनसे घिरे हुए भगवान शिव की बड़ी शोभा हो रही थी। राजन्! उनके पंचभूत स्वरूप अंगों का आश्रय लेकर ही यह अद्भुत दिखायी देने वाला सारा चराचर जगत स्थित एवं सुशोभित है। उस रथ को जुता हुआ देख भगवान शंकर कवच और धनुष से युक्त हो चन्द्रमा, विष्णु और अग्नि से प्रकट हुए उस दिव्य बाण को लेकर युद्ध के लिये उद्यत हुए। राजन! प्रभो! उस समय देवताओं ने पवित्र सुगन्ध वहन करने वाले देवश्रेष्ठ वायु को उनके लिये हवा करने के काम पर नियुक्त किया। तब महादेव जी दानवों के वध के लिये प्रयत्नशील हो देवताओं को भी डराते और पृथ्वी को कम्पित करते हुए से उस रथ को थामकर उस पर चढ़ने लगे।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-18
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 19-40
  3. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 41-61

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