महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
राजसूय यज्ञ
युधिष्ठिर के लिए इससे बढ़कर खुशी की दूसरी बात हो ही नहीं सकती थी। वह जैसे ही श्रीकृष्ण का अभिषेक करने के लिए आगे बढ़े तभी चेदि के राजा शिशुपाल क्रोध में भुनभुनाते उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा- "यह नीच कृष्ण पहली पूजा पाने के योग्य कदापि नहीं है।" शिशुपाल ने क्रोध में आकर श्रीकृष्ण के विरुद्ध कहनी न कहनी बातें आरम्भ कर दी। उन्होंने भीष्म पितामह को भी यह चुनाव करने के लिए बड़ी खरी-खोटी सुनाई। भीष्म ने ठंडे स्वर में उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। परन्तु शिशुपाल ने किसी की एक न सुनी वह सभा मण्डप से उठकर वापस चला गया और थोड़ी सी दौड़धूप से उसने अनेक राजे-महाराजों को इस बात के लिए सहमत कर लिया कि यदि कृष्ण को पहली पूजा मिलेगी तो हम युद्ध करेंगे। युधिष्ठिर ने अपने समारोह में यह विघ्न आया देखकर उसे शान्तिपूर्वक टालने का प्रयत्न किया पर शिशुपाल की हठधर्मी अब अपनी जगह पर ऐसी जम चुकी थी कि उसे कोई न समझा सका। उसकी गालियों से दूसरों के कान पकने लगे और सबने श्रीकृष्ण की शांत भाव से प्रशंसा की। अपने को अकेला पाकर शिशुपाल क्रोध और कुण्ठा के मारे पागल हो गया। वह भीष्म-पितामह, भीमसेन, युधिष्ठिर और अर्जुन आदि को भी श्रीकृष्ण की निन्दा के साथ-साथ लपेट में लेने लगा। सभी उससे क्रुद्ध हो उठे। श्रीकृष्ण ने शांत गम्भीर स्वर में सब लोगों से कहा- "हे नरपतियों! यह पापी हम यादवों का पुराना शत्रु है। हम यादवों ने इन चेदियों के साथ कभी कुछ बुराई नहीं की पर यह अवसर पाते ही हमारा अनिष्ट करता है। जब हम प्राग ज्योतिषपुर[1] गए हुए थे तब यह दुष्ट जाकर हमारी द्वारकापुरी को जला आया था। मेरे पिता के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चुराकर इसने जला दिया था, उनके यज्ञ में विघ्न डाला था; इसने एक तपस्वी स्त्री का अपमान किया। करूष राजा का वेश बनाकर यह अपने मामा की लड़की को धोखे से उठा लाया। इसके पाप अनन्त हैं। इसका स्वभाव आप देख ही रहे हैं। अपनी बुआ का लड़का समझकर उनको दिये वचन के कारण में अब तक इसको बराबर क्षमा करता आया हूं; पर अब मैं इस पापी को दण्ड देने का अधिकारी हूँ और मैं इसे दण्ड दूंगा।" यह कहकर श्रीकृष्ण ने सब राजाओं के देखते ही देखते अपनी सीधी उंगली से नचाकर ऐसा चक्र फेंका कि दूसरे ही क्षण शिशुपाल की गर्दन धड़ से कटकर अलग जा पड़ी। शिशुपाल की इस घटना से हंसी-खुशी के वातावरण में थोड़ी मलीनता अवश्य आ गई पर शिशुपाल के मारे जाने से उसके नौकरों-चाकरों के सिवा और कोई दुखी न था। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हुआ। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ असम
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