महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
राजसूय यज्ञ
युधिष्ठिर का व्यास जी की सलाह से राजसूय यज्ञ पूरा हो गया। बाहर के आए हुए सारे मेहमान विदा हुए पर अभी निकट के नाते-गोते यहीं पर टिके हुए थे उसी बीच में एक दिन व्यास जी आए, धर्मराज ने यथोचित रूप से उनका स्वागत किया वे बोले- "पुत्र तुम्हारे यज्ञ और वैभव को देखकर मैं बड़ा आनन्दित हूँ। तुम कुल रत्न हो। परन्तु एक बात कहे जाता हूँ कि एक की सफलता दूसरे कुछ लोगों के मन में ईर्ष्या बनकर समाती है और ईर्ष्या फिर जिस अन्तिम परिणाम बिन्दु को छूती है उस बिन्दु का नाम है विनाश। तुम इस बात पर विचार करना और यूं ही अपनी उन्नति करते हुए भी सदा इस बात का ध्यान रखना कि तुम्हारी सेना के द्वारा अनावश्यक रक्त-पात न हो।" व्यास जी यह उपदेश देकर चले गये। अब भाइयों की पंचायत बैठी। व्यास जी की बात का मतलब कुछ-कुछ तो साफ सामने दिखलाई पड़ रहा था। इस यज्ञ की सफलता से कौरव लोग जल-भुन गए हैं। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा विदुर को छोड़कर हस्तिनापुर से आए हुए ये कौरव नातेदार सदा सीधी बातों का उत्तर भी जली-कटी तरह से दिया करते थे। युधिष्ठिर ने अपनी ओर से यहाँ तक बड़प्पन दिखलाया कि दक्षिणा देने के लिए सुयोधन को कोष का अधिकार तक सौंप दिया। एक-एक भाई की देखभाल करने के लिए नौकर, चाकर, दीवान, आदि नियुक्त कर दिये थे। किन्तु वह समारोह में जला-कटा ही बना रहा। कभी-कभी तो भीम और अर्जुन अपमान के घूंट पी-पी कर रह जाते थे। परन्तु युधिष्ठिर की आज्ञा थी कि घर आये मेहमान की कड़वी बातों को भी अमृत मानकर ग्रहण करो। अब यह यज्ञ पूरा हो चुका था। बाहर का भीड-भक्कड़ भी समाप्त हो चुका था। भीमसेन, अर्जुन, द्रौपदी आदि ने आपस में यह भी निश्चय कर रखा कि बाद में किसी न किसी रूप में इसे नीचा अवश्य दिखलाया जायगा। भाइयों की इस गुप्त योजना की भनक युधिष्ठिर के कानों में भी पड़ चुकी थी। इसलिए व्यास जी के उपदेश का सहारा लेकर उन्होंने यह सलाह दी कि जहाँ इतने दिन चुप रहे वहाँ कुछ दिन और धीरज धरो। चार दिन के मेहमान हैं, लौट के अपने-अपने घर चले जायेंगे। बेकार में रार क्यों उठाते हो? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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