नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. राजर्षि परीक्षित-उपसंहार
कलि-निग्रह करके मैं लौटा और माथुर-मण्डल आया तो बहुत निराश हुआ। श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों का और वज्रनाभ का कोई पता नहीं था। वज्रनाभ के पुत्र तथा सेवक भी नहीं जानते थे कि गोवर्धन के समीप से उनका क्या हुआ। अन्ततः मैं महर्षि शाण्डिल्य के आश्रम पहुँचा। अच्छा हुआ कि मैं उस दिन आ गया था। महर्षि अपने हिमालय के आश्रम में अदृश्य रहकर तप करने का निश्चय कर चुके थे और प्रस्थान करने ही वाले थे। 'वत्स! तुम्हारा यह देश और काल तो केवल सृष्टिकर्त्ता के मन की कल्पना है। ब्रह्माजी के मन में ही यह सब है। उनका स्वप्न कह सकते हो इसे।' महर्षि ने मुझे समझाया- 'अवतार-काल में भगवदिच्छा से उनकी लीला और लीला-परिकर इस जगत में व्यक्त हो जाते हैं। अब अवतारकाल समाप्त हो गया तो लीला तिरोहित हो गयी। उद्धवजी की कथा के अन्त में स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने नित्यधाम तथा परिकारों को वहाँ प्रकट कर दिया। वज्रनाभ तथा रानियों ने उस धाम में अपना शाश्वत स्थान साक्षात किया और उससे एक हो गये। व्रजराजकुमार के दक्षिण चरण में जो वज्र का चिह्न है, उसी की चिन्मय रश्मि वज्रनाभ के रूप में व्यक्त थी। रानियाँ भी श्रीराधा की अंग-रश्मियाँ थीं। ये सब अपने नित्य स्वरूप में स्थित हो गये। अतः अब इस दृश्य जगत में उनका तिरोभाव हो गया। वैसे श्रीनन्दनन्दन, उनका धाम, उनकी लीला, उनके लीला-परिकर नित्य हैं। लेकिन अब अवतार-काल नहीं है। अब तो केवल प्रेम-परिपाक से ही भावुक भक्त उनका प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर सकते हैं। सामान्य जनों के लिए अब वह लीला अदृश्य है। उसकी भावना करने से ही मनुष्य का पाप-ताप नष्ट होता है और उसका अन्तःकरण परिशुद्ध हो जाता है।' महर्षि ने भी मुझे आश्वासन दिया है कि भगवान शुकदेवजी मुझ पर कृपा करेंगे। मैं उनके श्रीमुख से श्रीमद्भागवत का श्रवण करके श्रीकृष्णचन्द्र के श्रीचरणों का शाश्वत सान्निध्य प्राप्त कर सकूँगा। महर्षि अब अपने हिमालय के आश्रम चले गये। वहाँ भी अदृश्य रहते हैं। परमहंस महामुनियों के शिरोमणि शुकदेवजी को कोई ढूँढ़कर तो पा नहीं सकता। वे उन्मत्त-अवधूत वेश में दिगम्बर घूमते रहते हैं। कहीं किसी के द्वार पर पहुँचे भी तो गोदोहन हो, इतने समय-मात्र भिक्षा के लिए रुकते हैं। वे तो स्वयं कृपा करके पधारें तभी उनके दर्शन सम्भव हैं। उद्धवजी और महर्षि शाण्डिल्य का आश्वासन है। श्रीकृष्णचन्द्र की अहैतु की कृपा का अवलम्ब है। मैं उनका- उन्हीं का हूँ। अतः वे अवश्य कृपा करेंगे और शुकदेवजी मुझे दर्शन देंगे, यही प्रतीक्षा कर रहा हूँ। |
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