नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. दानवेन्द्र मय-अजगर उद्धार
वे देव-देव नील-कण्ठ कैलास त्यागकर वृन्दावन पधारे और यहाँ गोपेश्वर बनकर विराजमान हुए तो क्यों मैं आज की आराधना इसी पीठ पर सम्पन्न न करूँ। इससे अधिक जागृत पीठ कहाँ प्राप्त होगा, जहाँ भगवान वृषभध्वज अपने से अभिन्न श्रीनन्दनन्दन के आग्रह से आकर श्रीविग्रह बन गये हैं। पृथ्वी ही कर्मलोक है। तलातल त्यागकर मैं धरा पर- भारत भूमि मैं खाण्डव वन में इसीलिए इन दिनों रहने लगा हूँ, जिससे मेरी आराधना केवल भावात्मिका न रह जाय, उसकी क्रिया भी सफल होकर मेरे भूति-भूषण भूतनाथ स्वामी को सन्तुष्ट करती रहे। प्रभु पधारे व्रज-भूमि में- यह उनके प्रिय पुत्र से अज्ञात कैसे रहता। मैं इस काल-रात्रि की अर्चन क्रिया उनके गोपेश्वर विग्रह को अर्पित करने आ गया। भगवती योगमाया को मेरे आने पर आपत्ति तो तब होती, जब मैं दुर्भाव लेकर आता। मुझे व्रज प्रवेश में कोई बाधा नहीं प्राप्त हुई। व्रज और उसमें भी यह वृन्दावन- यह दिव्य भूमि, इसका वैभव वर्णन का विषय नहीं बनता। अमरों की अमरावती से अधिक वैभव तो हम दानव-दैत्यों की अधोलोक की पुरियों में ही है; किंतु यह तो दिव्यधाम है। इसकी तुलना-स्पर्धा सम्भव नहीं। मय इस धरा को प्रणिपात ही कर सकता है। मेरे महेश्वर सचमुच मुग्ध होकर ही यहाँ भूतेश्वर, चक्रेश्वर रूपों में रहने पर भी वृन्दावन में गोपेश्वर बनकर बसने आये हैं। कितनी प्रीति है श्रीकृष्णचन्द्र की महेश्वर में। अद्भुत अभिन्नत्व- वे इनके दर्शन को सदा समुत्सुक रहते हैं, इसके स्मरण से विभोर हो उठते हैं, यह मैंने बार-बार देखा है और देखता हूँ कि यहाँ इन श्रीनन्दनन्दन ने महाशिवरात्रि का निर्जल व्रत किया है। अभी नौ वर्ष, छः मास, छः दिन की अल्पवय और इसमें इतना आग्रह व्रत के प्रति, ऐसी श्रद्धा, इतना उत्साह! सभी गोप श्रीहरि के आराधक हैं। सबकी भगवान नारायण में अनन्य निष्ठा है; किंतु अब मेरे शशांकशेखर में सुदृढ़ श्रद्धा रखते हैं। सबने आज निर्जल व्रत किया है। श्रीकृष्णचन्द्र ने व्रत किया तो इनके सखा कैसे मान जाते। सब अपने माता-पिता से कहते हैं- 'हम कन्हाई से तो अधिक ही सबल है। वह नहीं खाता या जल पीता तो हम क्या दुर्बल हैं उससे। हम भी व्रत करेंगे!' बालक व्रत करेंगे तो बड़े क्या बिना व्रत के रहेंगे? व्रत तो व्रज में बालिकाओं तक ने किया है। इतनी श्रद्धा तो मेरे अपने कुल के कुलिशकाय दानवों में भी नहीं है। |
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