नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. वृन्दादेवी-दाऊ आये
इस दुःस्वप्न का मूल है दाऊ का अदर्शन। वे वनमाली अपने अग्रज के बिना दीखते भी हैं तो उनके दर्शन पर विश्वास नहीं होता है। इस छलिया का ठिकाना क्या- भाई के समीप ही यह कुछ सरल-सहज रहता है। उन एक-कुण्डल धर का ही कुछ संकोच मानता है। वे संकर्षण सन्तुष्ट हों, समीप हों तो श्रीकृष्ण के नटखटपन पर प्रतिबन्ध रहता है। तभी इनकी मोहिनी माया मन मारे बैठी रहती है। व्रज से वनमाली भले नहीं गये, दाऊ के अदर्शन ने दुःखद वियोग का दुःस्वप्न दे दिया यहाँ। आज दाऊ आ गये। वर्षों के पश्चात् व्रज धरा पर पधारे उनके पुण्य पाद-पद्म। वैं वनदेवी पलक पाँवड़े बिछाये रहूँ उनके चारु-चरणों के लिये। उनके रथ की ताल ध्वजा दीखी और वन का तृण-तृण झूम उठा। तृणों तक में पुष्प आ गये। मुझे तो लगता है कि कल्पों के पश्चात् मेरे वन ने यह वैभव पुनः पाया। उनका रथ आया- मैं देख रही थी कि वे एक-एक तरु-लता, कुञ्ज-पुञ्ज देखकर विभोर हो रहे थे। पक्षियों तक का उनका परिचय- उनका यह नित्य शाश्वत परिचय भी क्या कभी समाप्त हुआ करता है। वन्य पशु- शशक, मृग सब दौड़ पड़े थे। कपि-पक्षियों की आनन्दभरी वाणी वन में वर्षों पश्चात् मानो गूंजी। मयूरों का केकारव, कोकिल का कलकण्ठ, पपीहे की पुकार, भ्रमरावली का गुञ्जन- सब स्वागत में सार्थक हुआ। सबको सस्मित स्नेहदान करते उनका रथ चला। लताओं ने मार्ग में पुष्प बिछा दिये। वृक्षों से सुपक्व फल स्वतः टपक पड़े। मैं कंगालिनी क्या स्वागत करती इनका। इनके श्रीचरणों के सम्मुख मेरा वनदेवी रूप भी तो केवल संकुचिता किरात कन्या मात्र रह जाता है। दाऊ आये- दौड़े वृषभ, गायें, गोप-कुमार। सब उछलते, कूदते हर्ष से पुकारते, हम्बारव करते दौड़े और रथ से कूदकर दाऊ सबके मध्य आ गये। दाऊ का क्या व्रज से वियोग होता है? सबको यही लगता है कि दो घड़ी को ये कहीं गये थे। पशु सूँघ लेना चाहते हैं। सखा अंकमाल दे रहे हैं। दाऊ स्नेहमय, सौहार्द के मूर्त्तिमान स्वरूप दयामय दाऊ सबका सत्कार कर रहे हैं सस्मित। 'दादा! सुना तू द्वारिका चला गया।' तोक दक्षिण कर पकड़े पूछता है- 'कितनी दूर है द्वारिका? वहाँ कितनी गायें हैं?' 'द्वारिका समुद्र में द्वीप है।' दाऊ हँसकर समझाते हैं- 'अपने व्रज के इस गोधन के सम्मुख बहुत दरिद्र हैं।' |
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