नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची
मेरे स्वामी सबसे छोटे हैं। मैंने चार जेठानियाँ पायी हैं और चारों की मानों मैं सगी सुता हूँ। कोई पुत्री पर भी इतना इतना प्रेम क्या करेगी, जितना मैंने छोटी जीजी व्रजेश्वरी का पाया है और रानी जीजी रोहिणी गोकुल क्या आयीं, मुझे तो बड़ी माँ मिल गयीं। मैं उनकी बहुत-बहुत लाड़िली हूँ। मेरी दोनों नन्दें परिहास चाहे जितना करें, मेरे भाल पर स्वेद कणिका भी उन्हें सह्य नहीं। मेरे करों का अपने दोनों हाथों में लेकर कितनी बार तो चूमती हैं और कहती हैं, 'अतुला भाभी के हाथ तो केवल आशीर्वाद देने के लिए बने हैं।' मेरी एक ही कठिनाई है- मैं कम ही किसी की सेवा करने का अवसर पाती हूँ। जेठानियाँ तो वैसे ही कुछ करने नहीं देतीं, हठ करके कुछ करने भी लगूँ तो कोई भी जेठ देखते ही गरजेंगे- 'छोटी! तू क्यों लगी है? दूसरी सबों को क्या बहुत काम बढ़ गया है आज?' पीबरी जीजी तो पकड़कर ही बैठा देती हैं- 'अतुला, तू मुझे और मोटी करके मार ही डालेगी क्या? कुछ तो करने दे कि देह किञ्चित हलका बना रहे।' इस गोकुल में व्रजेश्वरी छोटी जीजी बनायी गयीं; किंतु राज्य करने के लिए तो यह अतुला है। इसी का श्रृंगार, इसी की सुविधा पर सबकी दृष्टि लगी रहती है। इसका भी उनकी सेवा में कुछ स्वत्व है, यह कोई सुनता ही नहीं। जेठों को कोई उत्तम रत्न, वस्त्र मिले तो पहिले- 'छोटी के लिए।' और जेठानियों के पास हो तो- 'अतुला यह तेरे ही योग्य है।' नन्दें भी ससुराल से पता नहीं कितना क्या-क्या लाती हैं- 'भाभी! बड़ी साध से लायी हूँ। तू ना मत कर देना!' जेठानियाँ तीनों एक-सी हैं। चाहे जब कह देंगी- 'अतुला! हम तो बूढ़ी हो गयीं। तेरी ही तो आयु है पहिनने-ओढ़ने की।' अब नारायण ने सबकी गोद भर दी है। मुझे चाची कहकर अंक में आ बैठने वाले अब इतने हो गये हैं कि गणना नहीं है। गोकुल के सब बालक तो मेरे ही हैं। मेरे नहीं हैं तो केवल दो और ये दोनों मेरे पेट से उत्पन्न हुए हैं। इन दोनों ने मुझे तनिक भी दु:ख नहीं दिया। इन्होंने तो मुझे केवल 'धाय' रखा और इसमें भी मुझे तंग नहीं किया। दोनों की माँ तो व्रजेश्वरी हैं। |
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