नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. माता रोहिणी-दाऊ का जन्म
किसी से, कैसी भी परिस्थिति में उद्विग्न होना इन्होंने जाना ही नहीं और इनसे उद्वेग-इन वात्सल्यमयी से भला किसी को भी उद्वेग हो सकता है। ये तो सबकी व्यथा मिटाने को, सबके सिहरते प्राणों को स्नेह से सहलाने को ही मानो अवतीर्ण हुई हैं। इनसे संकोच न शिशुओं को कभी हुआ, न वृद्धों को। वृद्धायें और बालिकायें, वधुयें तक इनका नि:संकोच स्नेह पाती रहीं और इनसे ही सब अपने अन्तर को अनावरित करके सब कुछ कह पाती हैं। इनके लिए एकान्त और अवकाश दुर्लभ हैं; किंतु कभी कुछ क्षण मिलते हैं तो ये अपने आप कुछ मन्द स्वर में कहने लगती हैं। इनका वह आत्मकथ्य बहुत प्रकट होकर भी अत्यन्त गुह्य है। क्या है वह? 'मैं अपने आराध्य के चरणों से दूर कहीं नहीं जाना चाहती थी। कंस ने देवकी के साथ उन्हें कारागार में बन्दी बना रखा था; किंतु मुझे उन तक जाने की सुविधा प्राप्त थी। मैं जाती थी तो बेचारी देवकी को आश्वासन ही मिलता था और स्वामी की सेवा का सुअवसर मिलता था मुझे। मेरी सब सपत्नियाँ स्वामी की आज्ञा से मथुरा त्याग गयीं। कोई दुर्गम गिरि गुहाओं में और कोई अगम्य अरण्यों में आश्रय लेने को विवश हुईं। कोई अपने पितृगृह नहीं गयीं। विपत्ति में कोई किसी का नहीं होता और अपने पितृकुलों को कंस का कोप-भाजन बनाना उचित भी नहीं था। विस्वस्त सेविकायें और परमपवित्र विप्र सहज स्नेहवश उनके साथ गये। किसी प्रकार सभी को संकट के दिन काटने थे। देवकी की सगी बहनें-उन विचारियों की तो पीछे सुधि रखें, ऐसे कोई भाई नहीं थे। मैं जानती हूँ कि कंस का साहस हस्तिनापुर के शासन से शत्रुता करने का नहीं है। यदि मैं वहाँ अपने पितृगृह जाना चाहती तो वह मुझे रोक भी नहीं सकता था; किंतु मेरे स्वामी कारागार में थे, सगी अनुजा जैसी देवकी की सन्तानें जन्मते ही मार दी जाती थीं। मैं ही अकेली थी जिसे बन्दी-गृह में जाने की अनुमति थी। मैं स्वामी को छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहती थी। |
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