नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. मधुमंगल-माखन चोरी
यह धरापर धूम करने आया और मैं गोलोक में अटका रहूँ? भू देवी तो माता हैं, इनके अंक में आने में मुझे क्या संकोच? काल और कर्म के बन्धन जिनको बाध्य करते हैं, वे अपनी सोचें; किंतु कन्हाई की तो छाया से भी माया दूर भागती है। इतना अवश्य हुआ कि मैंने किञ्चित शीघ्रता कर ली आने में। मुझे गणित कहाँ आता है। गोलोक से गोकुल-धरा ब्रज-मण्डल का अवतरण होने लगा तो मुझे त्वरा लगी। पहिले आ गया पृथ्वी पर। मर्त्यलोक की मर्यादा- इस मार्यादा की बात बड़ी जटा-श्मश्रु वाले लोग सोचते रहें। मैं कहाँ इनको जानता हूँ। पाञ्चभौतिक काया में काल देवता षट् विकार का षडयन्त्र करते हैं, मेरे समीप आते तो उन्हें भी अँगूठा दिखा देता। मैं स्वेच्छा से आया-स्वेच्छा स्वीकृत वय में रहूँगा। कन्हाई नटखट है। छोटा बन जाऊँ तो मेरी सुनेगा ही नहीं। दाऊ से दो वर्ष बड़ी वय रुचती है मुझे। इसमें सखा के साथ खेलने की सुविधा भी है और कुछ तो आदेश मानेगा यह। मेरे ब्राह्मण होने की बात तो इन सबके गले नहीं उतरती। वह ये तब मानते हैं जब बड़ी जटा भी हो और वृद्ध बनना कौन स्वीकार करे। वृद्ध बनकर पूजा भले प्राप्त कर लो, सखा के कर का नवनीत तो मिलने से रहा। अब तो दधि-नवनीत को लुटाना प्रारम्भ कर दिया है इसने। मुझे इसकी यही बात कुछ कम रूचि कि इतने दिनों तक नन्हा बना रहा। जिस धूम के लोभ से मैं धरा पर आया, वह तो इसने अभी कल प्रारम्भ की है। अब आप मुख लटकाये मत बैठो। मुनियों को शोभा देता है नेत्र मूँदकर मौन बैठे रहना। मनहूस बने रहना मूर्खता है। मेरा कनूँ- इसके साथ हो लो और यह तो आनन्दघन है। अब माखन की लूट प्रारम्भ कर दी है इसने। गोपियाँ भी अद्भुत हैं। किस-किस का नाम गिनाऊँगा, सब तो समय मिलते ही मुझे बुला लेती हैं। माखन देती हैं मुझे ब्राह्मण को, यह तो इनका कर्तव्य है; किंतु अनुनय कितना करती हैं- 'लाल मधुमंगल! अपने सब सखाओं को लेकर मेरे घर भी माखन खा जा एक दिन! मेरा माखन भी बहुत मीठा होता है। तू कहेगा उतनी मिश्री मिला दूँगी। सुना है कि तेरा वह सखा कन्हाई मल्लिका के घर चोरी से माखन खाने गया था। वह फूली फिरती है, बड़े उल्लास से सबको सुनाती है। लाला रे! मेरे घर उससे बहुत अधिक, बहुत मीठा माखन मैं बड़े सबेरे निकाल रखती हूँ। तू अपने सखा से कहना तो सही!' |
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