नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. कुबेर-बाल-क्रीड़ा
कैलासवासी करुणामय भगवान कपर्दी ने अपने इस किंकर को अनुज के रूप में अपनाया। अपने आवास के समीप अलका में इसे आश्रय दिया। अब यह उनका ही अनुग्रह है कि मैं अपने को भगवद्भक्त पुत्रों का पिता पाता हूँ। अदृश्य रहकर गोकुल जाता हूँ तो देवी योगमाया मुस्करा कर रह जाती हैं। मेरे वहाँ पहुँचने पर उन्हें आपत्ति नहीं है। अन्यथा आजकल उनकी अनुकम्पा के बिना गोकुल के गगन में भी किसी का प्रवेश असम्भव है। मेरे दोनों पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव सुन्दर नहीं हैं तो क्या हो गया। मुझ पिता की कुरुपता मिली उन्हें। पहिला मेरे समान ही कुब्ज हो गया। मैं बहुत दु:खी था, ये बहुत व्यसनी हो गये थे। पिता की बिना परिश्रम के प्राप्त हुई सम्पत्ति पुत्रों को कैसा मदान्ध कर देती है, इसका मैं भुक्त भोगी हूँ। मैं मानता हूँ कि मेरे ओढरदानी आशुतोष से मेरा अनुताप सहा नहीं गया। उन सदा शिव की प्रेरणा से ही देवर्षि मेरे दोनों सुतों के समीप पहुँचे थे और सदय होकर उन्हें शाप दे दिया था। ऐसा शाप-जो वरदान के रूप में माँगने का भी साहस मुझमें नहीं है। पुत्र गोकुल में नन्दपौरि पर अर्जुन के वृक्ष हो गये। डेढ़ सौ वर्ष वहाँ रहने का सौभाग्य मिला उन्हें और अब श्रीनन्दनन्दन का स्पर्श, उनका आर्शीवाद प्राप्त करके वृक्षयोनि त्यागकर पुन: अलका आ गये हैं। आदित्य के उदय होने पर अन्धकार तो रह नहीं सकता। परम प्रकाश-स्वरूप पुरुषोत्तम का स्पर्श पाकर मेरे पुत्र पुनीत हो गये। उनके हृदयों में भगवती भक्ति-देवी का पदार्पण हुआ। मैं ऐसे पुत्रों को पाकर कृत-कृत्य हो गया। मेरे स्वामी भगवान शशांकशेखर गोकुल हो आये! वे उन सौन्दर्य-सुधा-सार श्रीनन्दनन्दन की शोभा का वर्णन करते विभोर हो जाते हैं। मुझे लगता है कि उन्हीं में तन्मय रहते हैं। यदा-कदा ही भगवती पार्वती के अनुरोध से अपने को सावधान कर पाते हैं और तब उनके श्रीमुख से कुछ सुनने का सौभाग्य इस सेवक को भी सुलभ हो जाता है। मैं भी उन मयूर-पिच्छाभरण नन्दात्मज के पावन-पदों में प्रणिपात का अवसर पाता-भले अदृश्य रहकर ही यह कर पाता; किंतु साहस नहीं समेट पाता था। जहाँ भगवती श्रीसेविका बनी कण-कण सजाने में सदा लगी रहती हैं, वहाँ नरवाहन कुबेर कैसे पहुँचने का साहस करे! उस सौन्दर्य, सौकुमार्य, सौष्ठव के दिव्यधाम में केवल धनाध्यक्ष होने से ही तो इस कुरुप, कुब्ज के पहुँचने की धृष्टता योगमाया क्षमा नहीं कर देंगी। |
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