नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. मंगला दासी-द्वितीय ग्रहण-यात्रा
मैं वृद्धा तो हो गयी। कीर्ति बेटी के साथ आयी हूँ उसके पितृगृह से। उसे मैंने गोद में खिलाया है; किंतु इससे क्या हो गया। मैं अब भी दुर्बल तो नहीं हूँ। मुझे ही क्यों सब सेवा से पृथक करना चाहते हैं? मैं क्या बैठी-बैठी भोजन करने के लिये बनी हूँ। मेरी राधा लाली युग-युग जिये, सदा सौभाग्यवती रहे; इसने मुझे बचा लिया। कीर्तिरानी तो मुझे पूजा की पुतली बनाये दे रही थीं। कहती थीं- 'धात्री माँ, अब तुम श्रम मत किया करो। तुम्हारी सेवा को सेविकायें पर्याप्त हैं। तुम तो बस बैठी रहो और हम सबको उचित आदेश दे दिया करो।' लाली ने रोक दिया माँ को- 'नहीं मैया, इससे तो ये बहुत शीघ्र वृद्धा हो जायँगी। इन्हें बैठे रहने का अभ्यास नहीं है। अब ये बाबा की कालिन्दी-कूल की बैठक की स्वच्छता- सेवा सम्हालेगी। सेविकायें इनकी सहायता को रहेंगी इनके साथ।' 'कालिन्दी-कूल की बैठक में काम ही कितना है कि मेरे साथ सेविकायें रहेंगी।' मेरी यह बात किसी ने सुनी नहीं। मैंने भी सब सहायिका-सेविकाओं को दूसरे दिन भी भगा दिया। मेरी सहायता को तो लाली की सखियाँ ही बहुत थीं। अब पता नहीं क्या हो गया है कि वह बैठक ही हम सबके लिये बन्द है। मुझे कोई वहाँ जाने ही नहीं देता। वहाँ जाने को कहती हूँ तो कीर्तिरानी रोने लगती हैं- 'धात्री माँ! अब वहाँ क्या धरा है। वहाँ की स्वच्छता-सज्जा किसके लिये? अब तो सब बालिकायें द्वारिका चली गयीं। स्वामी कहते हैं कि वह बैठक लाली की स्मृति है। उसे वैसे ही रखना है। उसमें किञ्चित भी परिवर्तन उन्हें कष्ट देगा।' बालिकायें द्वारिका चली गयीं? यही बात मेरे गले नहीं उतरती और सब कहते हैं कि मैं दिन में भी स्वप्न देखती हूँ। 'बालिकायें सब हैं- सब बैठक में हैं। सबकी सब वहीं रात को भी रहती हैं।' मेरी इस बात पर ये लोग विश्वास क्यों नहीं करते? बैठक में जाकर देख लेने से ही तो काम चल सकता है। नन्दलाल बहुत नटखट है। पहिले भी वह मथुरा जाने का बहाना बनाकर हमारी बैठक में बस गया था। बालिकायें क्या अकेली रह सकती थीं वहाँ? ललिता ने जब मुझे भी बैठक में आना वर्जित कर दिया तो मैं समझ गयी कि अब वहाँ वनमाली आ गया है। लड़कियों को मुझ बूढ़ी के सामने संकोच होगा। मैं यहाँ कीर्तिरानी के समीप रहने लगी। तब भी मेरी बात कोई नहीं सुनता था। मैं अब वन में नहीं जा सकती। पनघट तो दूर, गोष्ठ में भी मुझे कोई जाने नहीं देता। भवन में ही रहती हूँ। बाहर निकलने लगूँ तो पता नहीं कितनी दासियाँ दौड़ेंगी, कीर्तिरानी स्वयं आ जायँगी- 'धात्री माँ, तुम कहाँ जा रही हो? क्या काम है? अपनी सेवा सूचित करने में संकोच क्यों करती हो?' |
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