नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. अपनी बात
मेरे एक मित्र कहते हैं- 'तुम इस अन्त में लिखे जाने वाले अंश को सबसे पहिले लिख लेते हो?' उनकी बात ठीक है, मैं पुस्तक को वहीं से लिखना प्रारम्भ करता हूँ, जहाँ से वह छपती है और पढ़ी जाती है। जानता हूँ कि 'दो शब्द', 'अपनी बात', 'भूमिका' आदि कहा जाने वाला यह अंश प्राय: अन्त में-पुस्तक प्राय: छप जाय तब लिखा जाता है और इसमें अपनी कठिनाइयों की चर्चा होती है, पुस्तक की विशेषता भी कभी-कभी कही जाती है सहायकों को आभार-धन्यवाद आदि दिया जाता है और यह सब तो अन्त में ही किया जा सकता है। मुझे इनमें-से प्राय: कुछ नहीं करना रहता। पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ कहना है तो वह वैसे ही अब भी है, जैसे अन्त में रहेगा। पुस्तक छपेगी ही, यही निश्चय नहीं रहता और इस बार तो अपने लिए ही लिखना है। छप जाय तो कन्हाई का कार्य, न छप जाय तो भी अपना उद्देश्य तो पूरा हो ही रहा है। आभार किसी को देना नहीं रहता। किसे दूँ? कृष्ण साथ न दे तो कुछ लिखा ही न जाय; किन्तु श्याम को आभार- यह इतना संकोची और अपने से अभिन्न। उसका तो है ही सब कुछ। शब्द भी तो मेरे नहीं। लेखनी पकड़कर कागज काला करने का श्रममात्र मैंने किया है। कोई कभी पढ़ सकता है; किन्तु यदि उसके हृदय में इससे किंचित भी कृष्ण-प्रेम की प्रतीति जागती है तो मैं अग्रिम आभारी; और यदि वह भक्त हृदय है तो उसकी अहैतुकी- अकारण कृपा अपने आप मुझे प्राप्त होती है। व्रजराज-कुमार का यह चरित- वैसे तो यह 'भगवान वासुदेव', 'श्री द्वारिकाधीश' तथा 'पार्थ सारथि' के क्रम की अंतिम कड़ी है; किन्तु अपने आप में स्वतंत्र है, विषय एवं शैली दोनों ही दृष्टियों से। पहिले 'भगवान वासुदेव' से जो श्रीकृष्ण-चरित प्रारम्भ हुआ, वह ऐश्वर्य चरित पार्थ-सारथिपर पूर्ण हो गया। वह भू-भारहारी श्रीहरि का पूर्णावतार चरित है। अनन्त ऐश्वर्य, षोडश-कला-सम्पूर्ण पूर्ण-पुरुष पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का चरित है वह। श्रीकृष्ण वासुदेव है। चतुर्भुज, शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी हैं। केवल गरुड़ध्वज रथ ही उनका नहीं है, गरुड़ासन भी हैं। समस्त ऋषिगण श्रीद्वारिकाधीश को साक्षान्नारायण कहते हैं। उन्होंने स्वयं अपने संबन्ध में यह कहा है-
'अहं सर्वस्व प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।'[2] सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्ण - अनन्त ऐश्वर्य; और उसे प्रकट करने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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