नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
8. भगवान भास्कर-श्रीराधा-जन्म
वृहत्सानुपुर के अधिपति का नाम मुझे उनसे आतमीयता स्थापित कराता है। मनुष्यों की भाँति मुझे भी नाम-साम्य से स्नेह हो गया है। दूसरे लोग भले वृष= धर्म+भानु व्युत्पत्ति करके वृषभानु का अर्थ धर्म का सूर्य करें, मैं तो वृष राशि का सूर्य ही अर्थ करता हूं; क्योंकि इसके कारण वे मुझे अपने प्रतीक लगते हैं। परमपुरुष की अभिन्नरुपा आह्लादिनी शक्ति प्रकट होंगी उनकी पुत्री होकर तो उनके भानु-नन्दिनी ही तो कहा जायेगा। पुरुषोत्तम को कालिन्दी पतिरूप में अवश्य प्राप्त करेंगी और मेरी यह पुत्री इन नित्य श्रीहरिप्रिया की अंशोद्भवा ही तो है। अत: मैं अपना पितृत्व यहीं क्यों छोड़ दूँ। नन्दनन्दन को जामाता न बनाना चाहे, उस पुरुष का पुत्री को जन्म देना व्यर्थ है। मुझे श्रुति 'सहस्ररश्मि' कहती है। मेरी सहस्त्र-सहस्त्र रश्मियाँ सलोनी बालिकायें बन सकें तो मैं सबको उन आने वाले व्रजराजकुमार को ही वरण करने की प्रेरणा दूँगा। वृहत्सानुपुर से मेरा ममत्व अब सभी सुर समझने लगे हैं। वहाँ की महिमा भी अब स्वर्गाधिप ने स्वीकार कर ली है। यह शक्र का मुझ पर अनुग्रह नहीं है, यह उनका ही सौभाग्य है। इससे उन्हें मेरी भानु-नन्दिनी की सेवा का कुछ तो अवसर मिल ही जायगा। अभी तो वृषभानुजी ने केवल एक कुमार पाया है। गोकुल में भगवान अनन्त के आविर्भाव के केवल दो दिन पीछे आया यह स्वर्णगौर श्रीदाम। मैं बहुत उत्सुक था कि इसके जन्मोत्सव में समस्त वृहत्सानु को-सम्मुख दीखते नन्दीश्वरसानु को भी रत्नमय कर दूँ; किंतु पता नहीं वह आने-वाली मेरी मानी हुई मानिनी बालिका सूर्य की रक्तारुण मणियों के प्रति कैसी रुचि रखेगी। मुझे उसकी प्रतीक्षा करनी है; क्योंकि उसकी रुचि, उसके मानस का स्पर्श तो स्त्रष्टा की भी शक्ति में नहीं है। कला-काष्ठादि से लेकर दिन, सप्ताह, मास, वर्षादि कल्पतक काल का सर्जक में ही हूँ। अत: कल्प पर्यन्तकाल में मेरे लिए भविष्य कुछ नहीं है। मैं देख रहा हूँ कि कल-यही कुछ मानव वर्ष के पश्चात गोकुल का जनपद कहाँ होगा। वह नन्दीश्वरसानु पर बना: नन्द-भवन तो मैं आज ही प्रत्यक्ष देख रहा हूँ; किंतु अभी तो उस स्थान की सज्जा अनवसर कही जायगी। मुझे आन्तरिक आनन्द भी आवेगा, जब वहाँ इस वृहत्सानुपुर का उपहार जाकर अलंकार बने और उसका श्रेय इसके अधीश्वर को प्राप्त हो। |
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