नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. ग्रामदेव-अक्रूर आये
अद्भुत है यह अक्रूर भी। कंस ने भेजा मथुरा से कि 'राम-कृष्ण को व्रज से यहाँ ले आओ!' अपना विशेष रथ दिया कंस ने। वायुवेग अश्ववाला वह रथ और अक्रूर मथुरा से प्रातःकाल चल पड़े; किंतु रथ और अश्व क्या करें, जब कोई उन्हें चलावेगा तब तो चलेंगे! कंस ने कल सायं ही केशी को भी भेजा था। वह आ गया प्रातःकाल ही और तभी उसका उद्धार हो गया; किंतु अक्रूर को तो मथुरा से निकलते ही मानो काठ मार गया। यह इसी असमंजस में पड़ा रहा- 'जाऊँ या न जाऊँ? वे मुझे मिलेंगे भी या नहीं? कंस का दूत हूँ, यह समझ कर रुष्ट होंगे अथवा अपना चरणाश्रित जानकर कृपा करेंगे?' हरिभक्त अक्रूर- वनदेवी को इन पर दया आयी। उन्होंने शुभ शकुन बार-बार सम्मुख उपस्थित किये। देवता बाधक बनते हैं जब मनुष्य देवताओं का आश्रय त्यागकर अपने नित्य सखा नारायण का पार्श्व पाना चाहता है; किंतु व्रज के देवता तो श्रीकृष्ण के शरणागत की सदा सहायता ही करते हैं। बाधक बनते हैं इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता। उनकी सेवा छूटती है जब मनुष्य अन्तर्यामी हृषीकेश की ओर उन्मुख होता है। हम तो नन्दनन्दन के सेवक हैं। जो इनकी ओर आना चाहे, उसके लिए हमारी सहायता सदा प्रस्तुत है। दाहिने मृगमाला आयी या नीलकण्ठ, लोमड़ी, श्वेत चील के दर्शन हुए तो अक्रूर उत्साह में आ गये- 'अवश्य मुझे धरा पर अवतीर्ण श्रीहरि के चरण-दर्शन प्राप्त होंगे। वे अन्तर्यामी मेरे हृदय को पहिचान कर मुझे अपनावेंगे। अपने पादपद्मों में प्रणत मुझे विशाल बाहुओं से बलपूर्वक उठाकर हृदय से लगा लेंगे। मेरा स्वागत करेंगे! मुझसे कंस का व्यवहार, अभिप्राय पूछेंगे। मेरा नाम लेकर मुझे पितृव्य कहेंगे! आज मेरा जीवन धन्य हो जायगा। आज मेरे नेत्र सफल होंगे। आज उन कमललोचन का स्पर्श पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा। कंस ने मुझ पर बड़ी कृपा की मुझे यहाँ भेजकर। श्रीकृष्ण का जिसने दर्शन नहीं किया, जिसे इन पुरुषोत्तम का पादस्पर्श नहीं मिला, उसके जीवन को धिक्कार है। ये जिसका स्वागत करें, जिसे आदर दें, जगत में आना उसका सफल हुआ।' |
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