नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. श्रीगर्गाचार्य–नामकरण
'आपके आग्रह से मैं गोकुल गया। न जाता तो मुझे जीवन-भर पश्चात्ताप रहता। मैंने ही इस मन्वन्तर के प्रारम्भ में इस सत्य का साक्षात्कार किया था कि इस वैवस्वत मन्वन्तर के अष्टाविंशतितम द्वापर के अन्त में परात्पर पुरुष पृथ्वी पर पधारेंगे। आपके अनुरोध ने उनके साक्षात्कार का सौभाग्य दिया।' महर्षि का शरीर पुलकित हो रहा था। अब भी उनके निर्मल दीर्घ दृगों में अश्रु आ रहा था। अत्यन्त उत्साह के कारण आश्रम न जाकर वे सीधे वसुदेवजी के भवन आ गये थे और वसुदेवजी को प्रणाम के अनन्तर पूजन से रोककर ही सुनाने लगे थे, वैसे आज वसुदेवजी को आचार्य का सविधि पूजन करना ही था। 'आपका कहना उचित था। नन्दराय अत्यन्त श्रद्धालु हैं, संकोची हैं और महामानव हैं। आपके छोटे कुमार की अवस्था भी आज सौ दिन की हो रही थी। अब दोनों का नामकरण कर ही दिया जाना चाहिए था। मैं यहाँ से नित्य कर्म सम्पूर्ण करके कुछ विलम्ब से ही चला। चाहता था कि गोप गायों को लेकर वन में चले जायँ, तब व्रजपति से एकान्त में मिलूँ। यहाँ से प्रस्थान करते ही परम शुभशकुन प्राप्त हुए। प्राय∶ लोग मेरी पिंगल जटाओं तथा दण्ड-छत्र को देखकर मुझे पहिचान लेते हैं और कोई अच्छा ज्योतिर्विद मिल जाय तो किसमें अपने भविष्य को जानने की उत्कण्ठा नहीं उठेगी। प्रत्येक व्यक्ति अपना ही नहीं, अपने पूरे परिवार का भविष्य जानना चाहता है। मित्र-परिचितों को भी बुला लेता है। इस सबके कारण मैं आश्रम से प्राय∶ कहीं जाता नहीं हूँ। लोगों के विनम्र अनुरोध को रूक्ष बनकर अस्वीकार कर देना मेरे स्वभाव में नहीं है और लोग अपने स्वार्थवश दूसरे के समय, सुविधा का ध्यान ही नहीं रखते। गोकुल में यदि अन्य गोप मिल जाते तो नन्दगृह तक सायंकाल तक भी पहुँचना कदाचित ही हो पाता। मुझे मार्ग में कोई नहीं मिला। व्रजराज नन्द गोष्ठ में ही मिल गये। मुझे देखते ही उन्होंने साष्टांग प्रणिपात किया अपने गोत्र तथा पिता के नाम के साथ अपना नाम लेकर। भवन में ले जाकर भली प्रकार मेरी अर्चा की। मेरा पादोदक पूरे भवन में सिञ्चित कराया उन्होंने। 'आप सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, परमवेदज्ञ हैं, ज्योतिषशास्त्र के मूर्तिमान स्वरूप हैं!' दूसरे भी मेरी स्तुति इसी प्रकार करते हैं; किंन्तु नन्द के स्वर में सच्ची श्रद्धा थी। उनकी विनम्रता हृदय को स्पर्श कर रही थी। |
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