नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. बुआ नन्दिनी-षष्ठी महोत्सव
मैं भी कितनी पगली हो गयी हूँ। भैया का घर तो इस नीलसुन्दर लाल ने भर दिया है। यह युग-युग, कल्प-कल्प की आयु प्राप्त करे! भैया ने, बड़ी रोहिणी भाभी ने मेरा घर भर दिया। मैं कितना दूँ, किसको दूँ कि कुछ तो घर खली हो। कोई लेनेवाला ही नहीं मिलता मुझे। जिसे देना चाहती हूँ, वही कह देती है- 'तुम तो व्रज-युवराज की बुआ हो, बड़ी बुआ। तुम्हें लेने का स्वत्व है, देने का नहीं। फिर तुम्हारे भैया ने इतना दिया है कि उसी को बाँटना है हमें।' 'तुमको आज नहीं, नहीं करना चाहिए।' यह भी कोई बात है कि गोकुल की सब मुझे ही आज देंगी और मुझे अस्वीकार करने का अधिकार ही नहीं है। लेकिन यह सब बातें सोचने लगूँगी तो मेरा कर्त्तव्य रह जायगा। आज षष्ठी है लाल की और अकेली रोहिणी भाभी क्या-क्या देखें-सम्हालेंगी। वैसे वे महारानी है, उनकी क्षमता असीम है। उनकी दृष्टि से व्यवस्था का तनिक-सा भी भाग छूटता नहीं; किन्तु उन्होंने मुझे सूतिका-गृह की सम्हाल दे रखी है। महर्षि शाण्डिल्य ने सुना कि आज निर्जल उपवास किया है। ये ऋषि-मुनि पता नहीं कैसे महीनों-वर्षों व्रत कर लेते हैं; किन्तु आज तो इतना आनन्द, इतना उल्लास मन में है कि भूख मेरी विदा हो गयी है। श्वेत तन्दुल वेदिकाओं पर महर्षि ने सायंकाल कुमार कार्तिक और षष्ठी देवी की स्थापना की। मुझे तो वह शोभी जीवन भर नहीं भूलेगी-यही आज की छटा देखने के लिए तो मैं वर्षों से मनौतियाँ कर रही थी। भाभी अपने नीलसुन्दर नवजात को अंक में लेकर जब भैया के वामभाग में बैठ गयी देव पूजन के लिए धन्य हो गये मेरे नेत्र। मैं अपना सब न्यौछावर कर दूँ इस शोभापर। |
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