नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. धात्री मुखरा-जन्मोत्सव
रोहिणी रानी तो महारानी हैं। ये आज सबका सत्कार करने में लगी हैं और इन्हें कम देना आता ही नहीं है। इनके हाथों में लक्ष्मी का निवास है। ये जिसे स्पर्श कर दें, जिसे दे दें- उसका अभाव पूरे जीवन के लिए मिट गया। अभी मधुमंगल कह गया- 'मुखरा मौसी! आज सुरांगनायें आयी हैं याचिका होकर और मैंने सुरों को, दिव्य महर्षियों को ब्राह्मणों के साथ व्रजराज के करों से दक्षिणा लेते देखा है। तू आज जो चाहे, जितना चाहे माँग ले माँ से। मैं ब्राह्मण भी आज तुझे अपने सखा के आगमन में आशीर्वाद दे सकता हूँ।' मैंने आज झिड़क दिया- इस अत्यन्त चपल को आज ही झिड़का मैंने- 'चल! आशीर्वाद देने आया मुझे! मेरे लाल को आशीर्वाद दे और माँग ले तुझे जो दक्षिणा लेनी हो।' व्रजराज की-मेरे व्रज नव-युवराज की दक्षिणा लेने महामहर्षि आवें, सुर आवें, सुरांगनायें ही नहीं, शारदा और श्री आवें- सब अपना सौभाग्य मानें इसकी दक्षिणा-न्यौछावर पाकर; किंतु मुखरा क्यों माँगे! मुखरा तो माँ है- धात्री माँ और मुखरा आज देने वाली-लुटाने वाली है। महारानी-रोहिणी महारानी नहीं ही मानेंगी। इनकी दृष्टि बचाकर कोई भी आज निकल नहीं पाती। सबको इनका सत्कार-उपहार आज स्वीकार करना ही पड़ता है तो मुखरा धात्री है। इसे प्रसूति-कक्ष में ही रहना है और मैं इस गृह की सेविका-मेरा रोम-रोम, कण इसके अन्न से पला-पुष्ट हुआ। महारानी का प्रसाद मेरे मस्तक पर। महारानी ने मुझे आज इतना दिया है कि मेरी अनेक पीढ़ियाँ भी उसे समाप्त नहीं कर सकेंगी। मेरा यह लाल सकुशल रहे! व्रज इसकी छाया में फले-फूले! मुखरा ने आज क्या नहीं पाया इसे पाकर। यह आया-अब और पाना क्या शेष रह गया। लेकिन यह जात-कर्म में ही बहुत श्रान्त हो गया है। सोने लगा है और मुझे सावधान रहना है कि प्रसूति-कक्ष समीप अधिक शब्द न हो। |
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