नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. ललिता-वियोग-वर्णन
'हाय नीलमणि! मैं क्या जानती थी कि तू मेरा नहीं है!' व्रजेश्वरी का यह आर्तनाद- 'मैंने तुझे बाँध दिया ऊखल में। मैं तुझे यष्टि लेकर धमकाती रही! पराये जाये पर मैं माँ का गर्व करके इतना सब अत्याचार करती चली गयी! इस हतभागिनी यशोदा को तू कभी क्षमा कर पायेगा?' व्रजराज-सदन का यह क्रन्दन सुना जाता है? हृदय फट नहीं जाता- पता नहीं किस वज्र से बना है। हम सब चली जाती हैं तो मैया हमको सम्हालने में अपनी व्यथा भूल जाती हैं। उनके अंक में किञ्चित शांति मिलती है। लेकिन अब यह भी सुलभ नहीं रहा। मेरी स्वामिनी श्रीराधा उन्मादिनी ही हो गयीं। अब इनको कहीं भी कैसे ले जाया जा सकता है। हाय! मेरी त्रिभुवन-कमनीया स्वामिनी काया कंकालप्राय हो गयी! तप्तकुन्दन जैसा वर्ण काला पड़ने लगा और वह अलौकिक कान्ति कहाँ गयी? बाबा और मैया की यह नेत्र-पुत्तलिका से भी प्रिय अब अनेक बार मुझे ही नहीं पहिचानती और पूछती है- 'तुम कौन हो?' 'तुम्हारी चरण-सेविका ललिता।' मैं मर जाती तो यह तो नहीं कहने का समय आता; किंतु मर भी नहीं सकती। इस स्वामिनी को सम्हालेगा कौन? यह तो अब अपनी भी सुधि नहीं रखती। मुझसे ही पूछती हैं- 'मैं कौन हूँ?' 'वृहत्सानुपुर के स्वामी वृषभानु बाबा और कीर्ति मैया कुमारी श्रीराधा।' मैं ही इसे यह बतलाने को बचने वाली थी। 'राधा? राधा कौन?' यह तो ऐसे पूछती हैं जैसे किसी बहुत अपरिचित के सम्बन्ध में सोच रही हो। 'श्यामसुन्दर की सर्वस्व श्यामा!' मुझे अन्ततः मन मारकर इसे सावधान करने को यह भी कहना पड़ा। 'हाय श्यामसुन्दर!' एक चीत्कार और मूर्छा! मैं कितना बचाती हूँ कि इसे नन्दनन्दन का नाम न सुनाया जाय। इसे उनकी स्मृति न दिलायी जाय, पर बार-बार यही करना पड़ता है। न भी करूँ तो निमित्त क्या कम है? मयूर आ बैठेंगे आँगन में, कोकिल बोलेगी, पपीहा बोलेगा, श्याम-तमाल व्रज में भरे पड़े हैं, आकाश में मेघ आवेंगे ही। कोई सम्पूर्ण पृथ्वी से पीत वर्ण और नील वस्तुओं को वहिष्कृत कर दे सकता। मेरी यह उन्मादिनी सखी नन्हीं पीली तितली भी देखती है तो दौड़ पड़ती है- 'यह रहा उनके पटुके का छोर!' |
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