नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सनकादि कुमार-पूतना-मोक्ष
आनन्दैकमात्र अपना स्वरूप- इसमें माया का आवरण तथा विक्षेप शक्ति सृष्टि का स्वप्न प्रस्तुत करती है; स्वप्न तो अज्ञानी जीवों के लिए है। जो जागृत हो चुका है, उसके लिए कैसा स्वप्न और कैसी माया; किंतु शरीर है तो प्रतीति भी है और प्रतीति तो बाधक या बन्धन-दातृ नहीं होती। वह तो अपना ही विनोद है। कभी-कभी अद्भुत बात होती है, इस प्रतीति में, इस स्वप्न में-इस सृष्टि में कहो, वह इसका अनाम, अरूप, अचिन्त्य सच्चिदानन्द आधार स्वयं आ जाता है आनन्दधनैक श्रीविग्रह धारण करके और तब प्रतीति केवल प्रतीति नहीं रह जाती। वह धन्य हो जाती है। अचिन्त्य, अतीन्द्रिय वह तुरीयतत्त्व जब चिदानन्दघन विग्रह बनकर इन्द्रियों के सम्मुख अवतरित होता है- वह भले अपनी योगमाया का आश्रय लेकर ऐसा करे, माया जिनकी दृष्टि का आचरण बनने में असमर्थ है, उनके लिये उसका यह साक्षात प्रत्यक्ष कितना उन्मद-आह्लादकारी है, वाणी वर्णन नहीं कर सकती। हमारे लिए तो अपने इस पितृलोक-ब्रह्मलोक का ही काल कोई वस्तु नहीं है तो धरा के काल की तो हमारी दृष्टि में कल्पना ही नहीं। क्षणार्थ भी हमको दूसरों को समझाने के लिए ही बोलना है। अभी-अभी की ही तो बात है जब नन्द-भवन में सच्चिदानन्दघन इन्दीवर सुन्दर परम पुरुष अवतीर्ण हुए हैं। धन्य योगमाया! धन्य देवि तुम्हारा अपार प्रभाव! सुर तो दूर, हमारे पिता सृष्टिकर्त्ता तक सम्मोहित हो गये! अरे, कंस के कारागार में भगवान अनन्तशायी अपने अंश से आ ही रहे थे तो वहाँ इतने स्तवन, इतनी सुमन वृष्टि और वह भी तब जब उनके भी अंशी साक्षात परम पुरुष पधार रहे थे! सृष्टिकर्त्ता के लिए, भगवान त्रिपुरारि के लिए, सुरों के लिए भी शेषशायी इतने अलभ्य और अलक्ष्य, अपरिचित तो नहीं हैं। वे सम्मान्य हैं, सम्पूज्य हैं, स्तोतव्य हैं; किंतु जब सर्वेश्वरेश्वर स्वयं आ रहे हों- लेकिन देवी योगमाया जब किसी को यह देखने ही न दें! हमसे ही सुरेन्द्र ने उलटे पूछा- 'आप सब देवर्षि के साथ नन्दभवन पर ही आज इतने उत्साह से क्यों सुमनाञ्चलि अर्पित करने में लगे हैं? वहाँ तो आद्या योगमाया पधार रही हैं! आप तो शक्ति के सेवक नहीं हैं। आज भगवान त्रिपुरारि भी यहीं मस्तक झुका रहे हैं और आप सब इतने आनन्दमग्न हैं! |
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