नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
यह अच्छी रही। इस मुनि ने जटाएँ बड़ा लीं और थोड़े दिन जल में रहकर जप क्या कर लिया, समझने लगा कि वही संसार में समर्थ है। इसे इतना भी पता नहीं कि जो दूसरों को उद्विग्न करता है और दूसरों से उद्विग्न होता है, वह महात्मा नहीं है। इसे स्थान से और जल-जीवों से मोह हो गया है। स्थान को अपना मानने लगा है। मैंने जल में जो सबसे बड़ा मत्स्य मिला, वहाँ उसे पकड़ लिया और अपने उदर में डाल लिया। प्राणी के लिये परमात्मा ने जो प्रकृति दी है, उसके अनुसार ही उसका आहार निश्चित कर दिया है। मैं शाकाहारी तो नहीं बन सकता। वहाँ से अन्यत्र जाकर भी उदर-पूर्ति कर सकता था; किंतु संसार मेरे स्वामी का है तो सौभरि मना करने वाला कौन? मुझे उसके मना करने से रोष आ गया था। 'गरुड़ यदि पुनः यहाँ आकर किसी प्राणी को आहार बनावेगा तो तत्काल मृत हो जायगा!' सौभरि ने लाल-लाल नेत्र करके शाप दे दिया। मैं चाहता तो उसी समय दूसरा मत्स्य पकड़कर सिद्ध कर देता कि किसी का शाप श्रीहरि के सेवक का स्पर्श करने में समर्थ नहीं है; किंतु मेरे स्वामी तप का सम्मान करते हैं, अतः मुझे भी उस शाप का सम्मान उचित लगा। अब उस ह्रद में केवल अल्पाकार मछलियाँ थीं। उन क्षुद्र जन्तुओं में मेरा कोई आकर्षण नहीं था। मैं यह भी समझ गया था कि सौभरि अब अपने मत्स्य-मोह के कारण तपोभ्रष्ट होने ही वाला है। अतः मैं वहाँ उससे विवाद किये बिना चला आया। मैंने सौभरि को छोड़ दिया; किंतु मेरे स्वामी का स्वभाव है कि अपने जनों का संकेत से भी अपमान करने वाले को वे क्षमा नहीं करते। जिस तप के अभिमान में सौभरि ने मुझे शाप दिया था, वह तप मछलियों के कारण ही नष्ट हो गया। मछलियों की क्रीड़ा ने सौभरि के मन को भ्रान्त बनाया और उसने जाकर महाराज मान्धाता की पचास कन्याओं का पाणिग्रहण कर लिया। मुझे शाप देने से उसका संचित तप तो उसी क्षण समाप्त हो गया था। |
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