नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
61. देवगुरु बृहस्पति-प्रलम्ब-परित्राण
यक्षकुमार कुबेर लोकपाल हैं। उन धनाध्यक्ष के लिये कृपणता कभी उचित नहीं हो सकती। उनकी पुष्प-वाटिका के पुष्प भगवान पुरारि के पूजनार्थ हैं, इतना ही पर्याप्त नहीं है। यह औदार्य भी आवश्यक था कि अन्य जन भी उसके पुष्पों से अपने आराध्य की अर्चा कर सकें। प्रवास में पुष्प प्राप्त करना सुगम नहीं होता। आर्थिक साधन-रहित अर्चक भी विवश होता है कहीं से पुष्प लेने को। अतः जो वाटिका बनाते हैं, उनमें उदारता आवश्यक है। अवश्य इतना प्रतिबन्ध होना चाहिए कि अपना अलंकरण बनाने को पुष्प कोई न ले सके। श्रद्धा-सहित लगायी गयी वाटिका के सुमन विलास के उपकरण न बनने लगें। सुरांगनाओं को, गन्धर्वों को भी अपने अलंकरण के लिए पुष्प आवश्यक होते हैं। ये सब वैश्रवण की वाटिका से पुष्प चोरी करने लगे थे। इन्हें व्यसन है कैलास के समीप सौगन्धिक कानन में विहार का और कुबेर के सेवक यक्ष, वाटिका से पुष्पों की चोरी बचा नहीं पाते थे। उत्तम पुष्प कोई भी उतार लेता था। कुबेर को बुरा लगा जब बराबर उनको अपनी पूजा के लिये पर्याप्त पुष्प पाना कठिन हो गया। उन्होंने शाप दे दिया- 'मेरे उपवन से पुष्पों का अनुमति लिये बिना चयन करने वाला असुर हो जायगा।' इस शाप को यक्षराज अंकित कराके उपवन में लगवा देते तो अच्छा होता। ऐसा कुछ नहीं किया उन्होंने। यह प्रमाद हो गया। गंधर्व श्रेष्ठ हूहू का पुत्र विजय एक दिन उधर आ निकला। वह परम वैष्णव हरि-गुण-गान करता आया। वहाँ स्थान किया उसने और अपनी अर्चा के लिये शाप से अनजान पुष्प-चयन करने लगा। इस अपराध से असुर हो गया। प्रमाद उससे भी हुआ- वाटिका के रक्षकों से पूछ लेना चाहिए था उसे। यक्षराज भी मेरे यजमान हैं और गन्धर्व भी। अनजान में ही कुबेर से भक्तापराध बन गया था और विजय अपने प्रमाद से असुर हो गया था। अब कुछ दिन कुबेर को अपने अपराध के फलस्वरूप असुर के उत्पात सहने को बाध्य होना पड़ा। विजय असुर होकर प्रलम्ब हुआ तो अमरावती की अपेक्षा यक्षपुरी उसके उत्पात का अधिक स्थान बनी। उसने यक्षों को अधिक उत्पीड़ित किया। यद्यपि मेरी सम्मति से वैश्रवण ने शापोद्धार कर दिया था कि द्वापरान्त में भगवान संकर्षण के करों से प्रलम्ब मुक्त हो जायगा। प्रलम्ब तो प्रतीक बना इस आधिदैवत तथ्य का कि प्रसिद्धि की वासना बहुत विशाल एवं प्रबल होती है। लोकैषणा लुब्ध करके बड़े-बड़े साधकों-सिद्धों का भी पतन करा देती है। श्रीकृष्ण की सन्निधि में उनके सखाओं में भी प्रलम्ब प्रवेश पा जाता है। साधन की उच्चतम अवस्था में भी यशेच्छा आकर्षित कर लेने में समर्थ है और नाम-वासना देह-वासना का ही दूसरा रूप है। प्रलम्ब से- प्रबल लोकैषणा से परित्राण केवल आचार्य का अनुग्रह-गुरु-चरणों का आश्रय ही देने में समर्थ है। प्रलम्ब जब संकर्षण का हरण करता है तो उसे मरना पड़ता है। दाऊ ही उसका समुद्धार कर सकते हैं। |
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