नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. महाभानु बाबा-कुरुक्षेत्र से लौटे
कुरुक्षेत्र के समन्तक-पञ्चक तीर्थ में सूर्य-ग्रहण-स्नान का पुण्य अश्वमेघ-यज्ञ से भी महान है, ऐसा ऋषि-मुनि कहते हैं। शास्त्र और वेदज्ञ ब्राह्मण जो कहते हैं, सर्वथा सत्य है। कोई भी श्रद्धालु सज्जन उसमें सन्देह कर नहीं सकता। लेकिन अब हम गोप पुण्य का करेंगे भी क्या? हमारे कुछ पुण्य शेष भी हों तो वे सब द्वारिका में विराजमान उस मयूरमुकुटी को मिल जायँ! वह सुखी रहे, सन्तुष्ट रहे, स्वस्थ रहे। हम तो उसके वियोग की जिस ज्वाला में जल रहे हैं, किसी नरक की अग्नि इतनी दाहक नहीं हो सकती। अब कोई पुण्य हमारा क्या भला कर पावेगा। इनता बड़ा ग्रहण- देश के सभी भागों से सब समर्थ स्त्री-पुरुष वहाँ पहुँचेंगे। द्वारिका के लोग न आवें, यह कैसे हो सकता है। जरासन्ध जैसे दुर्धर्ष को जिन्होंने सत्रह बार पराजित किया, उनको कुरुक्षेत्र आने में कोई कठिनाई कैसे हो सकती है। हमारे राम-श्याम वहाँ आवेंगे- मेरा हृदय आरम्भ से कहता था कि वे अवश्य आवेंगे। मैंने अपने वृषभानु भाई से कहा कि हम सब भी चलें। लेकिन मेरे भाई बहुत दीर्घदर्शी हैं। वे बचपन से अत्यन्त बुद्धिमान हैं। उन्होंने कहा- 'भैया' मैं जा नहीं सकता। मेरे जाने से व्रजेश्वरी नन्दगृहिणी को बहुत संकोच होगा। उस पुत्र-वियुक्ता दुखिया को पुत्र के मुख देखने का सुयोग मिलेगा इस समय। नन्दराय को उसे लेकर अवश्य जाना चाहिए। व्रजराज के चले जाने पर सम्पूर्ण व्रज की सुरक्षा- गोधन की सम्हाल करने वाला भी कोई यहाँ चाहिए। 'अब इस ऐश्वर्य का हम क्या करेंगे?' मैंने भाई से झल्लाकर कहा। 'यह सब जिसका है, वह हमारे ही भरोसे तो द्वारिका में निश्चिन्त बैठा है।' वृषभानु भाई ने कहा- 'उसके धन, गोधन के हम यहाँ रक्षक हैं। उसके अनकहे अविचल विश्वास को भंग कैसे किया जा सकता है। यह यहीं का है- यहाँ आये बिना रह नहीं सकता। ऐसा विश्वास न होता तो क्या वृषभानु अब तक जीवित रहता?' |
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