नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. राजर्षि परीक्षित-उपसंहार
पुण्यरात्रि थी वह पूर्णिमा की। शशांक की ज्योत्स्ना से स्नात गिरिराज-परिसर में हम सब श्रीहरि के नाम-संकीर्तन में तन्मय हो रहे थे। सहसा नवीननीरदश्याम, पीतवासा, वनमाली उद्धवजी एक कुंज से कीर्तन करते, प्रेम-विह्वल प्रकट हुए। उन्होंने आकर श्रीद्वारिकाधीश की पत्नियों के सम्मुख प्रणिपात किया। मैंने और वज्रनाभ ने उनकी पद-वन्दना की। 'वत्स परीक्षित!' उद्धवजी हम सबके मध्य बैठ गये और मुझे ही प्रथम सम्बोधन किया- 'इन अपने स्वामी की रानियों को और वत्स वज्रनाभ को भी मुझे श्रीकृष्णचन्द्र का नित्य सान्निध्य देना है। इसके लिए मैं यहाँ श्रीमद्भागवत इन्हें एक मास में श्रवण कराऊँगा तुमको इसमें मेरी सहायता करनी चाहिये।' 'आप आज्ञा करें।' अंजलि बाँधकर मैं खड़ा हो गया- 'मेरा सौभाग्य कि श्रीचरण ने मुझे सेवा के योग्य समझा।' 'भगवान वासुदेव ने जिस क्षण पृथ्वी का अपने प्रत्यक्ष रूप से परित्याग किया, उसी क्षण यहाँ कलियुग का प्रवेश हो गया।' उद्धवजी ने बिना किसी भूमिका के आदेश किया- 'कलि समस्त सत्कर्मों का विरोधी है। पुण्य कर्मों में बाधा देना उसका स्वभाव है। मैं यहाँ यह कथा प्रारम्भ करूँ तो वह कुछ-न-कुछ उपद्रव उपस्थित कर सकता है; किंतु तुम समर्थ हो। श्रीकृष्णचन्द्र ने तुम्हें जीवन दिया है। तुममें उनका तेज है। अतः तुम दिग्विजय के लिए निकलो और कलि को नियन्त्रित करो। तुम जब दिग्विजय करते, सर्वत्र धर्म की स्थापना करते चलोगे तो कलि को विवश होकर तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष होना पड़ेगा। वह अधर्म के आश्रय में रहता है। तुम्हारे धर्म स्थापन से उसके लिए धरा पर रहना कठिन हो जायगा। उसे तुम्हारी शरण लेनी पड़ेगी। अतः यह सहायता तुम करो। इस काल में मैं यहाँ कथा-श्रवण कराके इन सबको श्रीहरि का नित्य सान्निध्य देने का प्रयत्न करता हूँ।' मैं अपनी अवस्था क्या कहूँ- इन परम श्रद्धेय की सेवा का सौभाग्य मिला; किंतु मैं ही ऐसा हतभाग्य कि इनके श्रीमुख से कथा-श्रवण से वंचित हो रहा हूँ? मैंने हाथ जोड़कर किसी प्रकार प्रार्थना की- 'मैं आपके आदेश का पालन करूँगा। कलि का निग्रह मुझे कठिन नहीं लगता है; किंतु अपने चरणों के समीप बैठाकर आप मुझे भी कथा-श्रवण का अधिकारी बनाने की कृपा करें।' 'वत्स, कातर मत हो।' उद्धवजी ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक मेरे कन्धे पर अपना दक्षिण कर रखकर आश्वासन दिया- 'श्रीमद्भागवत-श्रवण के तुम सबसे श्रेष्ठ अधिकारी हो। लेकिन तुम सम्राट हो, तुम्हें सम्पूर्ण प्रजा के उद्धार का साधन सुलभ करना चाहिये। यहाँ तो तुम अकेले ही सुन सकते हो। तुमको व्यास-पुत्र शुकदेवजी श्रीमद्भागवत सुनावेंगे। वे साक्षात नन्दनन्दन के ही स्वरूप हैं। उस समय सभी प्रधान ऋषि-मुनि सुन सकेंगे और इस प्रकार यह कथा तुम्हारे निमित्त से संसार को सुलभ हो जायगी।' |
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