नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
'दादा! बूढ़े ब्रह्माजी को हम बालकों से उपहास सूझ गया।' श्यामसुन्दर हँस पड़े- 'तू रोष मत कर। वे आ गये हैं ऊपर गगन में। मैं कुछ पल में सब यथावत कराये देता हूँ। वे हमारे बछडे़-बालक एक वर्ष पूर्व ही उठा ले गये, अत: मुझे ही सब बनना पड़ा है। ओह! तो ये सर्वरूप, सर्वात्मा ही बछडे़ बालक, उनके वस्त्राभरण, छीके, लकुट सब बने हैं? तभी तो श्रुति शास्त्र कहते हैं-
श्रीकृष्णचन्द्र उठ खड़े हुए और अग्रज से कुछ दूर आगे आ गये मैं भूतकाल का साक्षात्कार करता वर्तमान में पहुँच गया। सहसा सब बछड़े, सब बालक चतुर्भुज वनमाली, शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी, कौस्तुभ-कण्ठ श्रीवत्स-वक्षा भगवान श्रीहरि के रूप में प्रकट हो गये। कोई भ्रम, कोई सन्देह स्थान नहीं पा सकता था। सारूप्य प्राप्त श्रीनारायण के पार्षदों के कण्ठ में कौस्तुभ और वक्ष पर श्रीवत्स नहीं होता, यह मैं जानता हूँ। तुलसी-दलों के केवल वे परम पुरुष ही पाद-स्पर्श प्रदान कर सकते हैं और यहाँ सबके मस्तकों से चरणों तक नव-तुलसी-दल की मालाएँ परम पुण्यमान इनके प्रीति-प्राप्त महापुरुषों ने अर्पित की थीं। अणिमा-महिमादि सिद्धियाँ, सब सिद्धेश्वर, सनकादि, देवर्षि तथा प्रजापतिगण प्रभृति मेरे सब पुत्र, जय-विजय प्रभृति भगवत्पार्षद, स्वयं माया देवी और श्रुतियाँ साकार होकर भगवान शिव के साथ इन सब प्रत्यक्ष श्रीहरि के रूपों की स्तुति कर रही हैं। सबके समीप एक-एक मेरे समान ब्रह्मा भी हाथ जोडे़ स्तवन कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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