नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
मुझे लगा कि स्तुतिकर्त्ताओं का सस्वर मन्त्र-पाठ समाप्त हो गया है। मैंने डरते-डरते दृष्टि खोली। नीचे सावधानीपूर्वक देखना पड़ा। वही फलभार-नम्र विटप, वही पुष्पों से लदी झूमती लताएँ। वही हरित व्रजभूमि। कहीं कोई बालक नहीं, कोई बछड़ा नहीं। श्रीनन्दनन्दन वही वाम कक्ष में श्रृंग-वेत्र दबाये, कटि में वंशी लगाये, वाम हथेली पर दधि-भात का ग्रास रखे, दधि-उज्ज्वल अधर एवं दक्षिण कर, वन में सखाओं को ढूँढ़ते घूम रहे हैं। पुकार रहे हैं- 'भद्र! सुबल! श्रीदाम! तोक! कहाँ हो तुम सब?' मैं अपने हंस से पृथ्वी पर कूदा और इन मयूर-मुकुटी, पीताम्बर-परिधान व्रजराजकुमार के सम्मुख दण्ड के समान गिर पड़ा। मेरा सौभाग्य- मैंने अपने चारों मुकुटों के किरीटाग्र से इनके पद्मपदों का स्पर्श किया। मैंने अपराध किया था- अक्षम्य भक्तापराध और ये सर्वेश शान्त खड़े थे। मुझे प्रताड़ित करने की कोई भंगी नहीं। रोष की कोई रेखा नहीं। प्रसन्न खडे़ थे मेरे सम्मुख। मैं साहस करके उठता था और फिर विह्वल होकर भूमि पर प्रणिपात करते गिर जाता था। सहस्र-सहस्र प्रणिपात किये मैंने और तब कहीं अपने को इतना स्थिर कर सका कि स्तुति कर सकूँ। भगवान शेष सहस्र मुखों से अनन्तकाल से जिनके गुण-गान में संलग्न हैं, श्रुतियाँ जिनके स्वरूप के सम्बन्ध में 'नेति-नेति' करके नीरव हो जाती हैं, मैं केवल चार मुख से इन अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक परम पुरुष की स्तुति करने में कैसे समर्थ हो सकता था। ये गोपकुमार बनें या अनन्तशायी- मैं इनका ही शिशु, इन्हीं के नारायण रूप के नाभिकमल से समुद्भूत। मुझे केवल यही तो कहना था- 'माता-पिता अपने अबोध बालक के विनोद को अपराध मानेंगे तो उस पर कृपा कौन करेगा? माता तो शिशु के अपराध को भी देखकर आनन्दित होती है। मैंने अंहकारवश कुछ कर दिया है; किंतु आपका हूँ। आपका पदाश्रित हूँ। आपकी कृपा का आकांक्षी हूँ। आपके स्वरूप आपकी महिमा से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ। अब आप ही अपनी ओर देखकर अनुकम्पा करें!' 'मैंने आपके स्वजनों का अपराध किया है। ये ऐसे महाभाग कि आप भी इन्हें कुछ देने में असमर्थ हैं; क्योंकि विष पिलाने आयी बालघातिनी पूतना को आपने माता का पद प्रदान कर दिया तो अब क्या रहा जो आप इनको दे सकें? इनको- जिन्होंने अपना सर्वस्व अपने प्राण-शरीर सब आपको अर्पित कर रखे हैं और केवल आपकी सेवा को, सुख को अपना सर्वस्व बना लिया है। |
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