नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
गोपों ने अपनी लाठियाँ उठायीं। गायों को रोकने दौडे़। बहुत प्रयत्न किया; किंतु जिधर पहुँचे- गायों ने उधर से मुड़कर दूसरा मार्ग पकड़ लिया। एक भी गाय को कोई रोक नहीं सका। बड़ा क्रोध आया सबको। नीचे बालक देख रहे थे, लज्जा भी थी कि वे अपने पिता, चाचा, ताऊ को असफल देख रहे हैं। गायों के समान तो झाड़ियों, शिलाओं, गह्वरों को कूदते आ नहीं सकते थे। सब क्रोध में भरे, हाँफते, स्वेदस्नात, लाठी उठाये दौड़ते कुछ घूमघाम कर नीचे पहुँचे। जो श्रद्धालु गोपों ने कभी नहीं किया, वह क्रोधावेश में सम्भवत: आज हो जाता। वे लाल मुख, अरुणाभ नेत्र, गायों पर अत्यन्त क्रुद्ध ही आये थे। ऐसे में हाथ उठ जाना अशक्य तो नहीं है। अचानक पुत्रों पर- बालकों पर दृष्टि पड़ी और गोपों के हाथों से लाठियाँ छूट गिरीं। नेत्रों से वात्सल्य उमड़ पड़ा। सबने गायों की ओर देखा ही नहीं। दौडे़ और अपने पुत्रों को भुजाओं में उठकार हृदय से लगा लिया। नेत्रों से प्रेमाश्रु टपकने लगे। देर तक खडे़ रह गये ऐसे ही। कठिनाई से बालकों को छोड़ सके। गायें ही नहीं, गोप भी लौट-लौटकर अपने बालकों को देखते हुए गये। 'तुम सबके आत्मस्वरूप सच्चिदानन्दघन। तुम समीप हो और गाय, गोप, गोपियों का ध्यान भी तुम्हारी ओर नहीं जाता?' श्रीसंकर्षण सशंक कह रहे थे- 'पहिले तो ऐसा नहीं था। सबका जैसा होना चाहिये, वैसा अतिशय अनुराग तुम्हारे प्रति ही था। अब इस वर्ष क्या हो गया है? बछड़ों, बालकों के प्रति व्रज की गायों, गोपों, गोपियों की प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, यह कैसे हो रहा है? |
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