गुरु-शिष्य संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 35 में गुरु-शिष्य संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर का वर्णन हुआ है।[1]

अर्जुन का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन बोले- भगवन! इस समय आपकी कृपा से सूक्ष्म विषय के श्रवण में मेरी बुद्धि लग रही है, अत: जान ने योग्य परब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या कीजिये।

श्रीकृष्ण का उत्तर

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! इस विषय को लेकर गुरु और शिष्य में जो मोक्ष विषयक संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास बतलाया जा रहा है।

गुरु-शिष्य संवाद

एक दिन उत्तम व्रत का पालन करने वाले एक ब्रह्मवेत्ता आचार्य अपने आसन पर विराजमान थे। परंतप! उस समय किसी बुद्धिमान शिष्य ने उनके पास जाकर निवेदन किया- ‘भगवन! मैं कलयाण मार्ग में प्रवृत्त होकर आपकी शरण में आया हूँ और आपके चरणों में मस्तक झुकाकर याचना करता हूँ कि मैं जो कुछ पूछूँ, उसका उत्तर दीजिये। मैं जानना चाहता हूँ कि श्रेय क्या है?’ पार्थ! इस प्रकार कहने वाले उस शिष्य से गुरु बोले- ‘विप्र! तुम्हारा जिस विषय में संशय है, वह सब मैं तुम्हें बताऊँगा’। महाबुद्धिमान कुरुरेष्ठ अर्जुन! गुरु के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उस गुरु के प्यारे शिष्य ने हाथ जोड़कर जो कुछ पूछा, उसे सुनो। शिष्य बोला- विप्रवर! मैं कहाँ से आया हूँ और आप कहाँ से आये हैं? जगत के चराचर जीव कहाँ से उत्पन्न हुए हैं? जो परमतत्त्व है, उसे आप यथार्थरूप से बताईये। विप्रवर! सम्पूर्ण जीव किससे जीवन धारण करते हैं? उनकी अधिक से अधिक आयु कितनी है? सत्य और तप क्या? सत्पुरुषों ने किन गुणों की प्रशंसा की है?

कौन-कौन से मार्ग कल्याण करने वाले हैं? सर्वोत्तम सुख क्या है? और पाप किसे कहते हैं? श्रेष्ठ व्रत का आचरण करने वाले गरुदेव! मेरे इन प्रश्नों का आप यथार्थ रूप से उत्तर देने में समर्थ हैं। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ विप्रर्षे! यह सब जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। इस विषय में इन प्रश्नों का तत्त्वत: यथार्थ उत्तर देने में आपसे अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। अत: आप ही बतलाइये, क्योंकि संसार में मोक्ष धर्मों के तत्त्व के ज्ञान में आप कुशल बताये हैं। हम संसार से भयभीत और मोक्ष के इच्छुक हैं। आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं, जो सब प्रकार की शंकाओं का निवारण कर सके। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुरुकुल श्रेष्ठ शत्रुदमन अर्जुन! वह शिष्य सब प्रकार से गुरु की शरण में आया था। यथोचित रीति से प्रश्न करता था। गुणवान और शान्त था।

ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर का वर्णन

छाया की भाँति साथ रहकर गुरु का प्रिय करता था तथा जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी था। उसके पूछने पर मेधावी एवं व्रतधारी गुरु ने पूर्वोक्त सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दिया। गुरु बोल- बेटा! ब्रह्मा जी ने वेद विद्या का आश्रय लेकर तुम्हारे पूछे हुए इन सभी प्रश्नों का उत्तर पहले से ही दे रखा है तथा प्रधान-प्रधान ऋषियों ने उसका सदा ही सेवन किया है। उन प्रश्नों के उत्तर में परमार्थ विषयक विचार किया गया है। हम ज्ञान को ही परब्रह्म और संन्यास को उत्तम तप जानते हैं। जो अबाधित ज्ञानतत्त्व को निश्चय पूर्वक जानकर अपने को सब प्राणियों के भीतर स्थित देखता है, वह सर्वगति (सर्वव्यापक) माना जाता है।[1]

जो विद्वान संयोग और वियोग को तथा वैसे ही एकत्व और नानात्व को एक साथ तत्त्व: जानता है, वह दु:ख से मुक्त हो जाता है। जो किसी वस्तु की कामना नहीं करता तथा जिसके मन में किसी बात का अभिमान नहीं होता, वह इस लोक में रहता हुआ ही ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है। जो माया और सत्त्वादि गुणों के तत्त्व को जानता है, जिसे सब भूतों के विधान का ज्ञान है और जो ममता तथा अहंकार से रहित हो गया है, वह मुक्त हो जाता है- इसमें संदेह नहीं है। यह देह एक वृक्ष के समान है। अज्ञान इसका मूल अंकुर (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अंहकार शाखा है, इन्द्रियाँ खोखले हैं, पंच महाभूत उसके विशेष अवयव हैं और उन भूतों के विशेष भेद उसकी टहनियाँ हैं। इसमें सदा ही संकल्प रूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त होने वाले सुख-दु:खादि ही उसमें सदा लगे हरने वाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीज से प्रकट होकर प्रवाह रूप से सदा मौजूद रहने वाला देरूपी वृक्ष समस्त प्राणियों के जीवन का आधार है। जो इसके तत्त्व को भली-भाँति जानकर ज्ञानरूपी उत्तम तलवार से इसे काट डालता, हे वह अमरतव को प्राप्त होकर जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुटकारा पा जाता है।[2]

महाप्रज्ञा! जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य आदि के तथा धर्म, अर्थ और काम के स्वरूप का निश्चय किया गया है, जिसको सिद्धों के समुदाय ने भली-भाँति जाना है, जिसका पूर्वकाल में निर्णय किया गया था और बुद्धिमान पुरुष जिसे जानकर सिद्ध हो जाते है, उस परम उत्तम सनातन ज्ञान का अब मैं तुम से वर्णन करता हूँ। पहले की बात है, प्रजापति दक्ष, भरद्वाज, गौतम भृगुनन्दन शुक्र, वसिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र और अत्रि आदि महर्षि अपने कर्मों द्वारा समस्त मार्गों में भटकते भटकते जब बहुत थक गये, जब एकत्रित हो आपस में जिज्ञासा करते हुए परम वृद्ध अंगिरा मुनि को आगे करके ब्रह्मलोक में गये और वहाँ सुख पूर्वक बैठे हुए पाप रहित महात्मा ब्रह्मा जी का दर्शन करके उन महर्षि ब्राह्मणों ने विनय पूर्वक उन्हें प्रणाम किया। फिर तुम्हारी ही तरह अपने परम कल्याण के विषय में पूछा- ‘श्रेष्ठ कर्म किस प्रकार करना चाहिये? मनुष्य पाप से किस प्रकार छूटता है? कौन से मार्ग हमारे लिये कल्याण कारक हैं? सत्य क्या है? और पाप क्या है? ‘तथा कर्मों के वे दो मार्ग कौन से हैं, जिनसे मनुष्य दक्षिणायन और उत्तरायण गति को प्राप्त होते हैं? प्रलय और मोक्ष क्या हैं? एवं प्राणियों के जन्म और मरण क्या है?’ शिष्य! जन मुनिश्रेष्ठ महर्षियों के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन प्रतितामह ब्रह्मा जी ने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हें शास्त्रानुसार पूर्णतया बताऊँगा, उसे सुनो। ब्रह्मा जी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करन वाले महर्षियों! ऐसा जानो कि चराचर जीव सत्यस्वरूप परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं और तपरूप कर्म से जीवन धारण करते हैं। वे अपने कारण स्वरूप ब्रह्म को भूलकर अपने कर्मों के अनुसार आवागमन के चक्र में घूमते हैं। क्योंकि गुणों से युक्त हुआ सत्य ही पाँच लक्षणों वाला निश्चित किया गया है।[2]

चार विद्याओं का वर्णन

ब्रह्म सत्य हे, तप सत्य है और प्रजापति भी सत्य है। सत्य से ही सम्पूर्ण भूतों का जन्म हुआ है। यह भौतिक जगत सत्य रूप ही है। इसलिये सदा योग में लगे रहने वाले, क्रोध और संताप से दूर रहने वाले तथा नियमों का पालन करने वाले धर्म सेवी ब्राह्मण सत्य का आश्रय लेते हैं। जो परस्पर एक दूसरे को नियम के अंदर रखने वाले, धर्म मर्यादा के प्रवर्तक और विद्वान हैं, उन ब्राह्मणों के प्रति मैं लोक कल्याणकारी सनातन धर्मों का उपदेश करूँगा। वैस ही प्रत्येक वर्ण और आश्रम के लिये पृथक-पृथक चार विद्याओं का वर्णन करूँगा। मनीषी विद्वान चार चरणों वाले एक धर्म को नित्य बतलाते हैं। द्विजवरो! पूर्व काल में मनीषी पुरुष जिसका सहारा ले चुके हैं और जो ब्रह्मभाव की प्राप्ति का सुनिश्चित साधन है, उस परम मंगलकारी कल्याणमय मार्ग का तुम लोगों के प्रति उपदेश करता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। सौभाग्यशाली प्रवक्तागण! उस अत्यन्त दुर्विज्ञेय मार्ग को, जो कि पूर्णतया परमपद स्वरूप है, यहाँ अब मुझ से सुनो। आश्रमों में ब्रह्मचर्य को प्रथम आश्रम बताया गया है। गार्हस्थ्य दूसरा और वानप्रस्थ तीसरा आश्रम है, उसके बार संन्यास आश्रम है। इसमें आत्मज्ञान की प्रधानता होती है, अत: इसे परमपद स्वरूप समझना चाहिये। जब तक अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य इन ज्योति, आकाश, वायु, सूर्य, इन्द्र और प्रजापति आदि के यथार्थ तत्त्व को नहीं जानता।[3] अत: पहले उस आत्मज्ञान का उपाय बतलाता हूँ, सब लोग सुनिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन द्विजातियों के लिये वानप्रस्थ आश्रम का विधान है।[4]

वन में रहकर मुनिवृत्ति का सेवन करते हुए फल-फूल और वायु के आहार पर जीवन निर्वाह करने से वानप्रस्थ धर्म का पालन होता है। गृहस्थ आश्रम का विधान सभी वर्णों के लिये है। विद्वानों ने श्रद्धा को ही धर्म का मुख्य लक्षण बतलाया है। इस प्रकार आप लोगों के प्रति देवयान मार्गों का वर्णन किया गया है। धैर्यवान संत महात्मा अपने कर्मों से धर्म मर्यादा का पालन करते हैं। धर्मों में से किसी का भी दृढ़ता पूर्वक पालन करते हैं, वे कालक्रम से सम्पूर्ण प्राणियों के जन्म और मरण को सदा ही प्रत्यक्ष देखते हैं। अब मैं यथार्थ युक्ति के द्वारा पदार्थों में विभाग पूर्वक रहने वाले सम्पूर्ण तत्त्वों का वर्णन करता हूँ। अव्यक्त प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, दस इन्द्रियाँ, एव मन, पंच महाभूत और उनके शब्द आदि विशेष गुण यह चौबीस तत्त्वों का सनातन सर्ग है। तथा एक जीवात्मा इस प्रकार तत्त्वों की संख्या पचीस बतलायी गयी है। जो इन सब तत्त्वों की उत्पत्ति और लय को ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों में धीर है और वह कभी मोह में नहीं पड़ता। जो सम्पूर्ण तत्त्वों, गणों तथा समस्त देवताओं को यथार्थ रूप से जानता है, उसके पाप धुल जाते हैं और वह बन्धन से मुक्त होकर सम्पूर्ण दिव्यलोकों के सुख का अनुभव करता है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 17-33
  3. आत्मज्ञान होने पर इनका यथार्थ ज्ञान हो जाता है
  4. 4.0 4.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 34-50

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